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रवीन्द्र-कविता-कानन
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अति धीरे धीरे फुटिबे दल,
बिकसित होये उठिये हास,
अति घीरे धीरे उठिवे आकाशे
लघु पाखा मेली खेजिबे वातासे
हृदय खुलानो, आपना भुलानो,
पराणमातानो वास।
पागल होइया माताल होइया
केवलि धरिवि रहिया रहिया
गुन् गुन् गुन् तान।
प्रभाते गाहिबि, प्रदोषे गाहिबि,
निशिथे गाहिबि रान,
देखिया फुलेंर नगन माधुरी,
काछे काछे शुधु वड़ाबि घुरि,
दिवा निशि शुधु गाहिबि गान।
थर थर करि काँपिबें पाखा
कोमल कुस्मे रेणुते माखा,
आबॅगेर भरें दुलिया-दुलिया
थर-थर करि काँपिबें प्राण।
केवलि उडिबि केवल बसिबि
कभुवा मरम माझारें पाशिनि,
आकुल नयने केवलि चाहिबि,
केवलि गाहिवि गान।
अमृत-स्वप्न देखिवि केवल
करिबिरे मधुपान!
आकाशे हासिबे तरुण तपन,
कानने छुटिबे बाय,
चारि दिके तोर प्राणेर लहरी
उथलि-उथलि जाय।
वायुर हिल्लोले झरिवे पल्लव