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रवीन्द्र-कविता-कानन
 

मर मर मृदु तान,
चारि दिक होते किसेर उल्लासे
पाखीते गाहिवें गान !
नदीते उठिवे शत शत ढेऊ;
गावे तारा कल-कल,
आकाशे आकाशे उथलि शुधु
हरपेरकोलाहल ।
कोथाओ बा हासी; कोथाओ बा खेला,
कोथाओ बा सुख गान;
माझे बोसे तुइ विभोर होइया;
आकुल पराणे नयन मुदिया
अचेतन सुखे चेतना हाराये
करिबिरे मधुपान।"

(आज इस प्रभात में भ्रमर की तरह तू भी निकल कर यहाँ आ जा। इस तरह के प्रभात में, इस तरह के कुसुम भला क्यों सूख जाते हैं? तू बाहर निकल आ, यहाँ ऊपर बैठ कर बस गाते रहना, उस कुसुम से तेरी बातचीत तभी होगी—तभी वह तेरे सामने अपने प्राणों के दल खोलेगा। बहुत धीरेधीरे उसके दल खुलेंगे, तब उसकी हँसी भी विकसित हो जायगी, तब हृदय को खोल देने वाली-अपने को भुला देने वाली—प्राणों को मस्त कर देने वाली सुगन्ध बहुत ही धीरे-धीरे आकाश की ओर चढ़ेगी—अपने छोटे-छोटे पंख फैला कर हवा के साथ खेलती फिरेगी। पागल हो कर, रह-रह तू केवल गुन-गुन् स्वरों में तान अलापेगा। तू प्रभात के समय गायेगा, प्रदोष के समय गायेगा, निशीथ के समय गायेगा। फूलों की नग्न माधुरी देख कर तू उन के आस ही पास चक्कर मारता रहेगा और दिन-रात केवल तान छेड़ता रहेगा । कोमल फूलों की रेणु लिपटाये हुए तेरे पंख थर-थर काँपते रहेंगे। इसके साथ आवेग की निर्भयता पर झूम-झम कर तेरे प्राण भी थर-थर काँपते रहेंगे। उड़ता रहेगा, फलों पर बैठगा फिरेगा, कभी मर्म में पैठ कर व्याकुल दृष्टि से हेरता रहेगा और अपनी तान छेड़ेगा । अमृत के स्वप्नों पर तेरी दृष्टि अटकी रहेगी। तू केवल सदा मधुपान ही करता रहेगा। जब तक आकाश में तरुण सूर्य का उदय होगा—वनों में वायु प्रवाहित हो चलेगी तब मुझे ऐसा मालूम