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रवीन्द्र-कविता-कानन
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के हृदय-श्वेत-शतदल पर, तुम्हारे पैरों के नीचे भारती खड़ी है; उसके संगीत के शून्य-पथ में एक अपूर्व महावाणी उमड़ रही है । मैंने आँखें मूंद कर भविष्य समय की ओर देखा, सुना—मंगल घोष से भरा हुआ हमारे देश में तुम्हारा विजय-शंख बज रहा है!)

देश पर महाकवि ने जो कुछ कहा है, उसमें भारतीयता को ही गन्ध मिल रही है। देश को विपथगामी होने से बचा रहे हैं, वे उसके मंगल के लिये किसी ऐसे उपाय की उद्भावना नहीं करते जो भारत के लिये एक नवीन और उसकी प्रकृति के बिल्कुल खिलाफ हो। वे उसे उसी मार्ग पर उठाये रखना चाहते हैं, जिस पर रह कर उसने महामनीषी ऋषियों को उत्पन्न किया था। वे यदि चाहते तो अपनी ओजस्विनी कविता द्वारा देश को अपने इच्छानुकूल मार्ग पर, अथवा विदेश के किसी क्रांतिकारी भाव पर चला सकते थे। परन्तु उन्होंने देश की नाड़ी पकड़ कर उसे वह दवा नहीं दी जो किसी विदेशी ने अपने देश की रोगमुक्ति के लिये उसे दी है। रवीन्द्रनाथ भारत के ओंकार की वर्णना में उसे किस उपाय से सर्वविजयी सिद्ध करते हैं, इस पर ध्यान दीजिये। उनके ओंकारनाद से संसार का संग्राम हुंकार प्लावित हो जाता है। इस प्लावन में अशान्ति नहीं, शांति है। यह बिना अस्त्रों की लड़ाई और सत्य की विजय है। इस ओंकारनाद से धनिकों का धन-दर्प भी चूर्ण हो जाता है। इसी का मंगल घोष महाकवि भविष्य के पथ पर अग्रसर हो कर सुनते हैं। इससे सूचित है, भविष्य में रवीन्द्रनाथ इसी ओंकार के विजय शब्द को भारतीय आकाश में गूँजते हुए सुन रहे हैं, अतएव वे भारत को उसी रूप में देखना चाहते हैं जिस रूप में उसे सुसज्जित करने के लिये महर्षियों ने युगों तक तपस्या की थी। भारत के सम्बन्ध में रवीन्द्रनाथ का यह गीत बहुत ही प्रसिद्ध है—

'आमि भूवन-मनोमोहिनी
आमि निर्मल सूर्यकरोज्वल धरणी
जनक-जननी-जननी!
नील-सिन्धुजल-धौत चरण तल,
अनिल-विकम्पित श्यामल अंचल,
अम्बर-चुम्बित भाल हिमाचल
शुभ्र-तुषार-किरिटिनी।