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रवीन्द्र-कविता-कानन
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रेखेछे धूलिते! प्रभ, हेरिते तोमाय
तुलिते ना हय माथा ऊद्ध्व पाने हाय!
जे एक तरणी लक्ष लोकेर निर्भर,
खण्ड खण्ड करि ताहे तरिब सागर?"

(अन्धा साँप अँधेरे गढ़े में रहता है। उसे अपने ही मस्तक के रत्न-प्रदीप का हाल नहीं मालूम। सूर्य के प्रकाश का भी उसे कोई ज्ञान नही। इसी तरह, हमारा यह देश भी अँधेरे में पड़ा हुआ है। हे दण्डविधाता! हे महाराज! जो दीप्त-रत्न उसके मस्तक पर तुमने लगा दिया है, उसका आदर-यत्न करना वह नहीं जानता, न उसे तुम्हारे प्रकाश का ही कोई ज्ञान है! वह सदा अपने अस्तित्व का शोक भार ढोया करता है,—अपने जन्म के लिये रोया करता है! तुम्हारे महान आदर्श को अपनी बुद्धि के दायरे के अन्दर रख, उसने उसके टुकड़े बना डाले है और उन्हें धूल मे डाल रखा है। हे प्रभु! यह सब उसने इसलिये किया है कि तुम्हें देखने के लिये उसे कहीं ऊपर की ओर नजर न उठानी पड़े। कितनी बड़ी भूल है। जिस नाव पर चढ़ कर लाखों मनुष्य पार हो सकते हैं, वह उसके टुकड़े बना कर समुद्र को पार करना चाहता है।)

इस अन्योक्ति से रवीन्द्रनाथ देश को बहुत बड़ा उपदेश दे रहे हैं। परन्तु यह उपदेश वे उपदेशक बन कर नहीं दे रहे, वे कवि के भावों में ही उसकी आँखें खोल रहे हैं। साँप अँधेरे गढ़े में पड़ा है। यहाँ साँप देश है और अंधेरा गढ़ा अज्ञान। उसके मस्तक पर मरिण है, अर्थात् हर एक मनुष्य के भीतर अनादि और अनन्त शक्ति का भण्डार है—उसके भीतर साक्षात् ब्रह्म विराजमान हैं। यह बात अर्थशास्त्र की ओर से भी पुष्ट होती है । देश में जितना अन्न होता है, उससे देश अपनी शक्ति को इतना बढ़ा सकता है कि फिर संसार के सब देश यदि एक आर हो कर उससे लड़े तो भी उसे जीत नहीं सकते। एक बार इन पंक्तियों के लेख से एक अर्थशास्त्र के पारङ्गत विद्वान् से बातचीत हुई थी। उन्होंने पहले दूसरे देशों का हाल कहा। फिर पश्चिमी देश भारत के साथ क्यों मैत्री नहीं करते, इसका अर्थशास्त्र-संगत एक कारण बतलाया और इसे अपनी सबल युक्तियों द्वारा पुष्ट भी किया। फिर उन्होंने कहा, लड़ाई में रसद से जितना काम होता है—लड़ाई के समय रसद की जितनी आवश्यकता है, उतनी न गोली की है—न बारूद की,—न मशीनगनों की है—न हवाई