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रवीन्द्र-कविता-कानन
 

सन्ध्यार आंधारे बसि निरानन्द घरे
दीन आत्मा मरितछे शत लक्ष उरे!
पदे पदे त्रस्त चिते हय लृण्ठयमान
धूलितले, तोमारे ज करि अप्रमाण!
जेनो मोरा पितृहारा धाई पथे-पथे
अनीश्वर अराजक भयात जगते!"

(हमलोग कहाँ?—दूर—बहुत दूर—उस नगर का नाम है विषाद उसी के एक जीर्ण मन्दिर में,—जिसकी दीवारें पुरानी हो गई हैं,—जहाँ एक दीप भी नहीं जल रहा! वहीं हजारों मनुष्यों की कुटिल भौंहों के नीचे कुब्जे की तरह—सिर झुकाये हुए—हजारों मनुष्यों के पीछे-पीछे प्रभुत्व की तर्जनी के इशारे पर उनके कटाक्ष से काँप-काँप कर हम चल रहे हैं, हमारी देह संकुचित हो गई है,—हम अपनी ही गढ़ी हुई कल्पना की छाया देख कर काँप रहे हैं,—सन्ध्या के अंधेरे में, निरानन्द-गृह में बैठी हुई हमारी दीन आत्माएँ लाखों विपत्तियों की शंका कर-करके जो दे रही हैं। पग-पग पर हमारा जी काँप उठता है हम धूल में लोटने लगते हैं—तुम्हें हम अप्रमाणित भी तो करते हैं! बिना बाप का अनाथ बच्चा जिस तरह गली-गली मारा-मारा फिरता है, उसी तरह हम भी इस अनीश्वर अराजक और भयात संसार मे मारे-मारे फिरते हैं।

रवीन्द्रनाथ की इस उक्ति से हमें अपनी वर्तमान देश-दशा का बहुत अच्छा ज्ञान हो जाता है। महाकवि के चरित्र-चित्रण में जो खूबी है—उनकी वही खूबी भावों के व्यक्त करने में भी पाई जाती है। वे एक निलिप्त फोटोग्राफर की तरह फोटो नही उतारते; उस चित्र के सुख और दुःख से अपनी हृदय-वीणा को इस तरह मिला देते हैं कि वह चित्र को अपनो सम्पूर्ण समवेदना गा कर सुनाया करती है। यही उनके चित्रण को स्वर्गीय ज्योति है—यही उनकी महत्ता है। देश के वर्तमान नग्न-ताण्डव का रूप खींच कर वे उसके सामने एक आदर्श भी रखते हैं। इस आदर्श की रचना महाकवि स्वयं नहीं करते, वे उसे वेदान्त की अमृतवारणो सुनाते हैं—कहते हैं—

"एकदा ए भारतेर कोन वनतले
के तुमी महान प्राण, कि आनन्द बले