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रवीन्द्र-कविता-कानन
 

कुत्तों से क्यों दी, इसका विस्तारपूर्वक वर्णन आगे चल कर इस तरह करते है—

"स्वार्थेर समाप्ति अपघाते। अकस्मात्
पूर्ण स्फूर्ति माझे दारुण आघात
विदीर्ण विकीर्ण करि चूर्ण करे तारे
काल-झंझ-झंकारित दुर्योग आंधारे।
एकेर स्पर्द्धारे कभू नाहीं देय स्थान
दीर्घकाल निखिलर विराट विधान।
स्वार्थ जतो पूर्ण ह्य लोभ-क्षुधानल
तत तार बेड़े उठे,—विश्व धरातल
आपनार खाद्य बोली ना करी विचार
जठरे पूरिते चाय !—बीभत्स आहार
बीभत्स क्षुधारे करे निदय निलाज।
तखन गजिया नामे तब रुद्र बाज।
छुटियाछे जाति-प्रेम सन्धाने
बाही स्वार्ज-तरी, गुप्त पर्वतेर पाने।"

(स्वार्थ की समाप्ति अपघात में होती है—एकाएक स्वार्थी की जान जाती है। जब वह अकड़-अकड़ कर,—सीना तान कर चलने लगता है, तब उसके पाप के घड़े पर बैठती भी है समय का पुरजोर झपेड़ा) और वह फूट कर चूर-चूर हो जाता है। (काल-झंझा के दुर्योगान्धकार में दारुण आघात उसकी परिपूर्ण स्फूर्ति को एकाएक चूर्ण-विचूर्ण कर देता है।)

ईश्वरीय विधान किसी की स्पर्धा को चिरकाल एक-सा नहीं रखता— किसी के यहाँ सब दिन घी के दिये नहीं बलते। और स्वार्थ का पेट जितना ही भरता जाता है, उतना ही वह पैर भी फैलाता जाता है और उसकी भूख भी उतनी ही बढ़ती जाती है। इसीलिये वह, अपना भक्ष्य समझ कर, बिना विचार के ही, तमाम संसार को अपने पेट में डाल लेना चाहता है!—वीभत्स भोजन उसकी वीभत्स क्षुधा को और निर्दय, और निर्लज्ज बनाता जाता है। तभी उसके मस्तक पर, हे विश्वेश! तुम्हारा रुद्र वज्र गरज कर टूट पड़ता है। अतएव, यह (पश्चिमी) जाति-प्रेम, अपनी ही मृत्यु की तलाश