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रवीन्द्र-कविता-कानन
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उनकी भारतीयता को। यहाँ महाकवि साधारण तौर पर ईश्वर की ही इच्छा को इच्छा और उन्हीं के कर्म को कर्म मान रहे हैं । उनको अलक्षित शक्ति के द्वारा ही, समय के आने पर, असम्भव सम्भव के आकार में बदल जाता है और उनकी इच्छा की पूर्ति होती है, इससे बड़ी भारतीयता हमारी समझ में तो और कुछ नहीं हो सकती। क्योंकि, अवतारवाद की जड़ में एकमात्र यही भाव है। असम्भव को सम्भव कर दिखाने की प्रचण्ड-शक्ति को ले कर जो पैदा होते हैं—जिनके आविर्भाव से संसार में एक युग-परिवर्तन-सा हो जाता है, भारत में उन्हें ही अवतार की आख्या दी जाती है। महाकवि भी इस आशय की पुष्टि करते हैं।

इस तरह, स्वदेश के सम्बन्ध में आपने और भी अनेक कविताओं की रचना की है। बङ्गलक्ष्मी, मातार आह्वान्, हिमालय, शान्ति, यात्रा-संगीत, प्रार्थना, शिला-लिपि, भारत-लक्ष्मी, से आमार जननी रे- नववर्षेरगान, भिक्षायां नैव नैव च—आदि कितनी ही कविताएँ महाकवि ने देश-भक्ति के उच्छवास में आ कर लिखी हैं और इनमें सभी कविताएँ महाकवि की वर्णन-विशेषता प्रकट कर देती हैं। आपके 'प्राचीन भारत' पद्य का कुछ अंश हम पाठकों के मनोरंजनार्थ उद्धत कर चुके हैं। लोकाचार या देशाचार को आप किन शब्दों में याद करते हैं, जरा यह भी सुन लीजिये, —बहुत छोटी कविता है, नाम है 'दुइ उपमा'।

"जे नदी हाराये स्रोत चलिते ना पारे;
सहस्र शैवाल-दाम बांधे आसि तारे;
जे जाति जीवनहारा अचल असार
पदे-पदे बांधे तारे जीर्ण लोकाचार!
सर्व जन सर्व क्षण चले जेई पथे;
तृण-गुल्म सेया नाहीं जन्मे कोनो मते-
जे जाति चलेना कभू, तारि पथ परे
तन्त्र मन्त्र संहितार चरण न। सरे!

जिस नदी का प्रवाह रुक जाता है, वह फिर बह नहीं सकती है। फिर तो सेवार की हजारों जंजीरें उसे आ कर जकड़ लेती हैं। इसी तरह जिस जाति के जीवन का नाश हो गया है—जो जाति अचल और जड़वत हो गई