पृष्ठ:रवीन्द्र-कविता-कानन.pdf/७५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
रवीन्द्र-कविता-कानन
७१
 

सारा दिन बाजाइली बांशी!—ओरे तुइ उठ आजि
आगुन लेगेछ कोथा? कार शंख उठियाछे बाजि
जागाते जगत जने? कोथा होते ध्वनिछे क्रन्दने
शून्यतल? कोन अन्धकार माझे जर्जर बन्धने
अनाथिनी मागिछे सहाय? स्फीतकाय अपमान
अक्षमेर वक्ष होते रक्त शोषि करितेचे पान
लक्ष मुख दिया! वेदनारे करितेछे परिहास
स्वार्थोद्धत अविचार! संकुचित भीत कीतदास
लुकाइछे छयवेशे! ओइ जे दांडाये नतशिर
मूक सबे,—म्लान मुखे लेखा सुधू शत शताब्दीर
वेदनार करुण हिनी; स्कन्धे जतो चापे भार—
बहि चले मन्दगति जतक्षण थाके प्राण तार;—
तार परे सन्तानेरे दिये जाय वंश वंश धरि;
नाहीं भर्से अदृष्टेरे, नाहीं निन्दे, देवतारे स्मरि
मानवेरे नाहीं देय दोष, नाहीं जाने अभिमान,
सुधू दुटी अन्न खूटी कोनो मते कष्ट विनष्ट प्राण
रेखे देय बाँचाइया! से अन्न जखन केह काड़े,
से प्राणे आधात देय गर्वान्ध निष्ठुर अत्याचारे,
नाहीं जाने कार द्वारे दांडाइवे विचारेर आशे,
दरिद्वार भगवाने बारेक डाकिया दीर्घश्वासे
मरेसे नीरवे;—एइ सब मूढ़ म्लान मूक मुखे
दिते हबे भाषा, एई सब श्रान्त शुष्क भग्न बुके
ध्वनिया तुलिते हबे आशा; डाकिया बलिते हबे—
मुहूर्ते तुलिया सिर एकत्र दांडाओ देखी सबे—
जार भये तुमी भीत से अन्याय भीरु तोमा चे ये,
जखनि जागिवे तुमी तखनि से पलाइबे धेये;
जखनि दांडावे तुमी सम्मुखे ताहार,—तखनि से
पथ-कुक्कुरेर मत संकोचे सत्रासे जावे मिशे;
देवता विमुख तारे, केहो नाहीं सहाय ताहार