पृष्ठ:रवीन्द्र-कविता-कानन.pdf/७९

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रवीन्द्र-कविता-कानन ७५ - यह विचित्र वेश है,-नये ढंग के आधार हैं। इसीलिये मेरी आँखों में स्वप्न का आवेश है, हृदय में भूख की ज्वाला उठ रही है । माँ ! तूने मुझे सिर्फ यह खेलने की वंशी क्यों पकड़ाई, जिस दिन मैं संसार में चला आया था । इसीलिये तो बजाता हुआ अपने स्वर से मुग्ध हो कर, दीर्घ दिन और दीर्घ रात्रि लगा- तार मैं चलता ही गया और एकान्त में बहुत दूर संसार की सीमा छोड़ कर निकल गया। उस वंशी से जो स्वर मैने सीखा है, उसी के उच्छ्वास से यदि गीत-शून्य इस अवसाद-पुरी को प्रतिध्वनित करके मैं जगा सका—मृत्यु को जीतने वाले आशा के संगीतों से यदि एक मुहूर्त के लिये भी कर्महीन जीवन के एक प्रान्त को मैं तरंगित कर सका--दुःख को यदि भाषा मिल गई-सुप्ति के भीतर से यदि अन्तर की प्रखर प्यास स्वर्ग के अमृत के लिये जग पड़ी,- तो मेरा गान धन्य हो जायगा,-सैकड़ों असन्तोषों को महागीत के द्वारा निर्वाण की प्राप्ति हो जायगी।) 'कि गाहिये, कि सुनावे !-वल; मिथ्या आपनार सुख, मिथ्या आपनार दुःख ! स्वार्थमग्न जे जन विमुख बृहत् जगत् होते जे कखनो सेखेनी बांचिते ! महाविश्व जिवनेर तरंगेते नाचिते नाचिते निर्भये छुटिते हो सत्येरे करिया ध्रुवतारा ! मृत्युरे करिना शंका ! दुर्दिनेर अश्रु जलधारा मस्तके पड़िये झरि-तारि माझे जावो अभिसारे, तार काछे, जीवन सर्वस्वधन अर्पियाछि जारे जन्म जन्म धरी ! - Ard तारी लागी रात्रि-अन्धकारे चलेछे मानव-यात्री युग होते युगान्तर पाने झड़-झंझा बज्रपाते, ज्वालाय धरिया सावधान अन्तर प्रदीप खाली ! - - –छुटेछे से निर्भीक पराणे संकट-आवर्तमाझे, दियेछे से विश्व-विसर्जन, निर्यातन लयेछे से वक्ष पाती; म त्युर गर्जन