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रवीन्द्र-कविता-कानन
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विरागी संसार का त्याग कर चले जाते हैं—जहां महाराजाधिराज भी अपनी सुख-सम्पदा को छोड़ कर अपने प्रियतम से मिलने के लिए चले जाते हैं और वज्रप्रहार को भी धैर्यपूर्वक सह लेने के लिये तैयार रहते हैं, आँसुओं को पी कर प्रेम के उस कंटकाकीर्ण पथ को पार करने के लिये कवि भी तैयार हो जाता है। परन्तु जिसके पास पहुँचने के लिए वह इतना उद्यम करता है, वह है कौन?—सम्पूर्ण विश्वब्रह्माण्ड की सौन्दर्य-प्रतिमा—जिसके उद्देश्य में कवि प्रेम के अगणित संगीतों को सृष्टि करके बहा देते हैं, आसमान में जिसका आँचल लोटता है।

यह प्रश्न उठता है कि पहले तो कवि दीनों की दुर्दशा का दिग्दर्शन करता है,—उनके अपमान को दूर करने, उन मूकों को भाषा देने, उसमें जीवन संचार करने का संकल्प करता है, वह कवि बन कर अपने स्वर से संसार का प्रांत तरङ्गित कर देने के लिये इच्छा प्रकट करता है—फिर एकाएक उसे इस तरह उसी संसार से विराग क्यों हो जाता है?

इसका उत्तर देने से पहले हम प्रामगिक कुछ दूसरी बातें कहना चाहते हैं। इस इतने बड़े पद्य मे ऐसो सुन्दर अर्थ-संगति रखना रवीन्द्रनाथ जैसे कवित्व कला के पारदर्शी महाकवि का ही काम था। पहले रवीन्द्रनाथ की अद्भुत शब्द-शृखला पर ध्यान दीजिये। एक-एक भाव की लड़ी चालीस-चालीस पचास-पचास पंक्तियों तक बढ़ती ही चली गयी है; और तारीफ यह कि भाव कहीं छूटने-टूटने नहीं पाया। जान पड़ता है, शब्द और भाव उनके गुलाम हैं, इच्छा मात्र की देर होती है और वे हाथ बाँध कर हाजिर हो जाते है। बहुत विद्वानों की राय है कि, कविता का सौन्दर्य यह है कि शब्द थोड़े हों और भाव अधिक और गहन; इस तरह कविता का सौन्दर्य ज्यादा खुलता है, जैसे बिहारी के दोहे। इस कथन में सत्य की छाया नहीं है सो बात नहीं। परन्तु कविता के सौन्दर्य की व्याख्या के लिये एक कथन को ही सत्य मान लेना वैसी ही भूल होगी जैसी साकार और निराकार के झगड़े में अक्सर हुआ करती है। यह कोई बात नहीं कि सौन्दर्य विन्दु में ही हुआ करता है, सिन्धु में नहीं। बल्कि यह कहना ठीक होगा कि विन्दु का सौन्दर्य अलग है और सिन्धु का अलग। जो लोग शब्द बिन्दु में कवित्व सिन्धु के भर देने की उच्चकोटि की कविता बतलाने के आदी हो रहे हैं, उनसे हम विनयपूर्वक कहेंगे, भाई! आपकी उक्ति में तर्क का विरोध होता है। क्योंकि बिन्दु में कभी सिन्धु समा नहीं सकता, हाँ बिन्दु में