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रवीन्द्र-कविता-कानन
 

सिन्धु का चित्र भले ही पड़ जाय। आँख की पुतली पर संसार का एक बहुत बड़ा चित्र पड़ता है, इसलिए क्या कोई यह कह सकता है कि आँख में संसार समा गया? वह तो ज्यों का त्यों बाहर ही रहता है, कभी किसी की आँख का आपरेशन करके संसार का एकाध टुकड़ा अब तक बाहर नहीं निकाला गया। बिन्दु में सिन्धु को भर देने वाली बात पर भी यही एतराज है। यह हम मानते हैं कि पथ्य के एक जरा मे टुकड़े में सौन्दर्य की मात्रा बहुन हो सकती है, परन्तु इस तरह टुकड़ों में सौन्दर्य भरने के लिए हम कवियों को सलाह नहीं दे सकते। क्योंकि बिन्दु में छाया पड़ने पर सौंदर्य पैदा होता है और सिन्धु में सुन्दर अगणित बिन्दुओं को देख कर और सौन्दर्य। यह कोई बात नहीं कि सब समय थोड़े में ही बड़े दर्शन किये जाय और बड़ों में असंख्य क्षुद्रो के नहीं।

महाकवि रवीन्द्रनाथ के इस पूर्वोद्ध त पद्य में यदि कोई बिन्दु में सिन्धु की छाया देखना चाहे तो उसे निराश होना होगा। उसमें वह आनन्द है जो सिन्धु में अगणित बिन्दुओं को देखकर होता है। अस्तु! पहले संसार के घोर उत्पीड़न को देखना, उत्सीड़न के यथार्थ मर्मको खोलना, उत्पीड़ितों को उत्पीड़न के सामने लाकर खड़ा करता! उनके अगनित असन्तोषों को अपने गीत के द्वारा निर्वाण की प्राप्ति कराना, तब स्वयं निर्वाण के पथ पर निकलना और सत्यं शिवं सुन्दरं की मूर्ति—अपनी निरुपमा सौन्दर्यमयी—से मिलना, इस क्रम में कैसा सुन्दर संगीत है, इस पर पाठक ध्यान दें। रवीन्द्रनाथ तब तक निर्वाण प्राप्ति के लिये नहीं निकलते जब तक सैकड़ों असन्तोषो को उनके गीतों के द्वारा निर्वाण की प्राप्ति नहीं हो जाती। इसमें सन्देह नहीं कि जहाँ आपने कवि को सम्बोधन करके कहा है—क्या गाओगे—क्या सुनाओगे ! कहो, हमारे ये सुख और दु:ख मिथ्या हैं, जो स्वार्थ-मग्न है वह वृहत् संभार से विमुख है—उसने बचना नहीं सीखा, वहाँ उनकी इन पंक्तियों से सूचित हो जाता है कि उनके गीतों से सम्पूर्ण असन्तोषों को निर्वाण की प्राप्ति नहीं होती। यदि सम्पूर्ण असन्तोषों को निर्वाण लाभ हो गया होता तो आगे चल कर स्वार्थमग्न मनुष्यों को वृहत् संसार से विमुख बतला कर महाकवि एकाएक वैराग्य धारण न कर लेते। उन्हीं की पंक्तियों से सूचित होता है कि उनके वैराग्य धारण करने से पहले—निरुपमा सौन्दर्य प्रतिमा के पास पहुँचने से पहले, संसार में, असन्तोष और स्वार्थ यथेष्ट मात्रा में रह जाते हैं और उनके सुधार से निराश अतएव विरक्त होकर ही मानों वे वैराग्य के पथ पर आते हैं।