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रवीन्द्र-कविता-कानन
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हयदोष नहीं है, किन्तु कला की एक उत्कृष्ट विभूति है। सम्पूर्ण असंतोषों को निर्वाण की प्राप्ति न कराना, इसमें कला के साथ-साथ दर्शन की पुष्टि होती है। कला इसमें वह है जिसमें मनुष्य के मन का चित्र दिखलाया है और दर्शन वह जिसमें सनातन सत्य की पुष्टि। रवीन्द्र नाथ यह तो कहते ही नहीं कि पीड़ितों और लांछितों के साथ उनकी कोई सहानुभूति नहीं है। वे उनसे पूर्ण सहानुभूति रखते हैं; कितने ही असन्तोष निर्वाण या सन्तोष के रूप में बदलते हैं—अनेकों का सुधार हो जाता है। परन्तु स्मरण रहे इन अनेकों का सुधार कुछ रवीन्द्रनाथ की इच्छा से नहीं होता—रवीन्द्रनाथ तो सुधार की योजना मात्र पेश करते है—सुधार के गीत मात्र गाते हैं, सुधरते हैं लोग अपनी इच्छा से। 'शत-शत असन्तोष महागीते लभिबे निर्वाण', महाकवि की इस उक्ति में शतशत (अनेक, किन्तु सब नहीं) असन्तोष जीवधारी बतलाये गये हैं। (Pcrson ified) और वे स्वयं ही निर्वाण की प्राप्ति करते हैं, व्याकरण की वृष्टि से असन्तोष स्वयं कर्ता है और 'लभिवे'—'लाभ करेंगे' उसकी क्रिया, अतः मनुष्य रूपधारी सैकड़ो असन्तोष स्वयं ही निर्वाण की प्राप्ति करते हैं, उनके इस कार्य में रवीन्द्रनाथ का गीत सहायक मात्र है। जिस तरह बिना कारण के कर्ता की कार्य-मिद्धि नहीं होती है, उसी तरह, यहाँ बिना महाकवि की सहायता के असन्तोषों को मुक्ति नहीं मिलती है। बस इतना ही श्रेय रवीन्द्रनाथ को दिया जाता है। और कार्यकर्ता अपनी इच्छा से ही करता है—असन्तोष अपनी इच्छा से ही मुक्त होते हैं। उनकी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता पर महाकवि अधिकार प्राप्त करने की चेष्टा नहीं करते, इससे उन्होने अपने विशाल शास्त्र ज्ञान का परिचय दिया है, क्योंकि जिस तरह समष्टिगत आत्मा स्वतन्त्र है, उसी तरह व्यक्तिगत आत्मा भी स्वतन्त्र है, और व्यक्ति की कुल क्रियाएँ भी स्वतन्त्र हैं। मनुष्य मन की प्रगति के अनुकूल ही काव्य-चित्र में भाषा-तूलिका को संचालित करके, महाकवि ने कला को विकसित कर दिया है और बहुतों की मुक्ति बतला कर और बहुतों को उसी अवस्था में छोड़ उसी असन्तोष में डाल कर आपने शास्त्रों की एक सच्ची व्याख्या-सी कर दी है। सृष्टि में किसी बीज का नाश नहीं होता। यदि सम्पूर्ण असन्तोष संसार से गया होता टब तो असन्तोष के बीज का नाश ही हो गया था। इससे कविता में एक बहुत बड़ी असंगति आ जाती है। असन्तोष को संसार में पूर्ववत् प्रतिष्ठित रख कर, संसार की क्षुद्रता को छोड़ विश्व-ब्रह्माण्ड की सौंदर्य श्रीके पास कवि का पहुँचना ही