पृष्ठ:रवीन्द्र-कविता-कानन.pdf/८६

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८२ रवीन्द्र-कविता-कानन दिन। स्वाभाविक हुआ है । अब रही संसार से उनके विमुख होने की बात, सो इसका वृत्तान्त उन्होंने स्वयं ही लिखा है । संसार में वही रह सकता है, जो अस्वार्थ पर है, असंकीर्ण है। अपने संकल्प-समूहों में अशेष का चित्रण करते हुए महाकवि लिखते हैं--- "आबार आह्वान ? जतो किछ छिलो काज सांग तो करेछी आज दीर्घ दिन मान। जागाये माधवी वन चले गेछे बहु क्षण प्रत्यूप नवीन ! प्रखर पिपासा हानी पुष्पेर शिशिर टानी गेछे मध्य माठेर पश्चिमे शेये अपराह्न म्लान हेसे होलो अवसान, पर पारे उत्तरिते पा दियेछि तरणीते, आवार (फिर तुम मुझे बुलाते हो ? जितने मेरे काम थे, उन सबको तो मैंने समाप्त कर डाला--इस दीर्घ दिन के साथ-साथ । नवीन प्रभात तो माधवी वन को जगा कर बहुत पहले ही चला गया है । फूलों की ओस चाट कर, उनमें प्रखर प्यास भर कर दुपहर भी चली गयी है । प्रान्तर के अन्तिम पश्चिमांश में, मलिन भाव से हँस कर पिछला पहर भी डूब गया है ! इस समय, उस पार जाने के लिये मैंने नाव पर पैर रक्खा ही और तुमने मुझे फिर बुलाया ?) "नामे सन्ध्या तन्द्रालसा सोनार आंचल खसा हाते दीप शिखा, दितेर कल्लोल पर टानी दिया झिल्ली स्वर घन यवनिका! ओपारेर कालो कुले काली धनाइया तुले निशार कालिमा, गाढ़ से तिमिरतले चक्षु कोथा डूबे चले नाही पाय सीमा! आह्वान ?"