पृष्ठ:रवीन्द्र-कविता-कानन.pdf/८८

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८४ रवीन्द्र-कविता-कानन रानी, मूक बने घुमाय ना पाखीगणे आह्वान ?" है, इस अंधेरे के भीतर भी बिजली की तरह तेरा आह्वान, कहाँ से आ कर झलक जाता है ?) 'दक्षिण समुद्र पारे तोमार प्रासाद द्वारे हे जाग्रत बाजे ना कि सन्ध्या काक्षे शान्त सुरे क्लान्त ताले वैराग्येर बाणी? सेथाय कि आंधार शाखाय? तारागुली हर्म्य शिर उठे ना कि धीरे धीरे निःशब्द पाखाय? लता-वितानेर तले बिछाय ना पुष्प दले निभृत शयान? हे अभ्रान्त शान्तिहीन, शेष होये गेलो दिन एखनो (दक्षिण समुद्र के उस पार, तुम्हारे महल के दरवाजे, ऐ मेरी जागती हुई रानी ! क्या शाम के वक्त शान्त स्वर और क्लान्त ताल में वैराग्य की वाणी नहीं बजती ? क्या वहाँ के मूक वनों की अंधेरी शाखाओं पर पक्षी सोते नहीं ? तारे, चुपके-चुपके महल के सीस पर धीरे-धीरे क्या वहाँ नहीं चढ़ते ? -~~-लता वितानों के नीचे, फल-दल, क्या वहाँ एकांत-शय्या की रचना नहीं करते ? ऐ शान्तिहीन अभ्रान्त ! दिन समाप्त हो चुका और तुम अब भी मुझे बुलाते हो ?) "रहिलो रहिलो तवे आमार आपन सबे, आमार मोर सन्ध्या दीवालोक, पथ-चावा दुटी चोख चले गांथा माला। खेया तरी जाक बोये गृह-फेरा लोक लोये ओ पारेर ग्रामे; तृतीयार क्षीण शशि धीरे पड़े जाक खसि कुटिरेर बामे ! रात्रि मोर, शांति मोर, रहिल स्वप्नेर घोर सुस्निग्ध निर्वाण; r , निराला,