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रवीन्द्र-कविता-कानन
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महिमामयी, तुम्हारी आह्वान-वाणी को मैं सफल करूँगा। थका हुआ भी, मेरा हाथ न काँपेगा, मेरा गला न बैठ जायगा, मेरा वीणा न टूटेगी। नवीन प्रभात के लिये तमाम रात मैं जागता रहूँगा, दिया भी न गुल होगा। नये प्रभात के आने पर कार्यभार तुम्हारे किसी नये सेवक को सौंप जाऊँगा अपने अंतिम कंठ स्वर में तुम्हारे आह्वान की घोषणा करके जाऊँगा।)

किस संकल्प की भीड़ों से, हृदय की किस वासना के मधुर सम पर ठहर-ठहर कर, 'अशेष' की यह रागिनी महाकवि रवीन्द्रनाथ अलाप रहे हैं, इसका पता लगाना बड़ा कठिन काम है। साधारण—मन इस विचित्र ढङ्ग की वर्णना को पढ़ कर, जिसके नाम के साथ सूरत का जरा भी मेल नहीं पाया जाता, स्वभावतः चौंक कर थोड़ी देर के लिए निराधार सा हो जाता है—अर्थ में डुबकी लगाने के लिये कोशिश तो करता है, पर पानी पर उसे बर्फीली चट्टान का एक हास्यास्पद भ्रम हो जाता है। नादान बालक की प्रश्नभरी मौन दृष्टि से इन पंक्तियों की ओर देख कर ही रह जाता है, जटिल अर्थ-ग्रन्थि के सुलझाने का साहस, भाषा के सुदृढ़ दुर्ग को देख कर; पस्त हो जाता है।

परन्तु परिस्थिति वास्तव में ऐसी जटिल नहीं। पंच भूतों में बन्द आत्मा की तरह वह महान होने पर भी दुर्बोध नहीं। भाषा के पीजड़े में भाव-शेर बन्द है,—बड़ा है—प्रखर-नख है, पर कुछ कर नहीं सकता। थोड़ी देर पीजड़े के पास खड़े रहिये, धैर्य के साथ; उसके सब स्वभावों से परिचित हो जाइयेगा, गर्जना भी सुनने को मिल जायगी, और उसकी गर्जना में, यदि आप समझदार हैं, तो उसका भाव भी ताड़ जायंगे कि वह क्या चाहता है।

महाकवि की इस कविता का शीर्षक है 'अशेष', परन्तु अशेषता की साफ छाप कविता की पंक्तियों में कहीं पड़ने नहीं पाई, अशेषता, जीवन के अवश्यम्भावी सत्य किन्तु अज्ञात भविष्य की तरह, भाषा की गोद में बिल्कुल छिप गई है। यह 'अशेष' क्या है?—वही 'आह्वान' जिसका उल्लेख प्रत्येक भाव के अन्त में होता गया है। कवि सूत्रपात में ही कहता है—'सब काम समाप्त हो चुके,—प्रत्यूष माधवी-वन को जगा कर चला गया—फूलों की ओस पीकर, उनकी प्यास बढ़ा कर, दुपहर भी चली गई, पिछला पहर भी पच्छिम के छोर में ढक गया, सब का अन्त हो गया; पर तुम्हारा आह्वान अब भी है—उसकी समाप्ति नहीं हुई—तुम मुझे अब भी बुला रही हो।' यही 'अशेष' है।

स्वभावतः यह प्रश्न उठता है कि यह आह्वान 'अशेष' है—माना, परन्तु