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रवीन्द्र-कविता-कानन
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अन्धकार, परन्तु इस युग की नवीनता संस्कृत के प्राचीन उपमान-उपमेय के बन्धनों से अलग हो गई है। उसे अब उस तरह की वणना पसन्द नहीं। अस्तु इस कल्पना में अब असत्य की छाया कही नहीं मिलती, और इसी युक्ति से सिद्ध होता है कि कल्पना कभी—असत्य नहीं होती, एक कल्पना में चाहे दूसरी कल्पना भले ही भिड़ा दी जाय और इस तरह के कार्यों में जो जितना कुशल है, साहित्य के मैदान में वह उतना ही बड़ा महारथी। अतएव हम कहेंगे, महाकवि के 'अशेष' में कल्पना भी है और सत्य भी।

अब प्रथम प्रश्न के साथ हम महाकवि की सुलझी हुई भी जटिल-सी जान पड़ने वाली ग्रन्थियों को खोलने की चेष्टा करेंगे। 'आह्वान' अशेष है, यह हम बतला चुके हैं। यह बतलाना है कि यह किसका आह्वान है। हम पुनरुक्ति न करेंगे। आप अशेष के प्रथम दोनों पैराग्राफ पढ़ जाइये, देखिये, पहल संध्या का वर्णन है। फिर रात होती है। दिन भर काम करके थके हुए कवि की पुतलियों से स्वप्न आ कर लिपट जाते हैं—उसका संगीत रुक जाता है—प्रिया की आरजू में अपनी ओर खींच लेने की जो एक विचित्र शक्ति होती है, वही उस समय क्लान्ति को प्राप्त है। बह भी कुल अंग समेट रही है, ऐसे समय कवि को फिर पुकार सुन पड़ती है, वह जरा सुख की नींद नहीं सोने पाता। तभी तीसरे पैराग्राफ के आरम्भ में मोहिनी कह कर भी अपनी स्वामिनी को वह निष्ठुर बतलाता है। मोहिनी इसलिए कि कवि उस पर मुग्ध है; निष्ठुर इसलिये कि कवि के विश्राम के समय भी वह उसे पुकारती है। तभी कवि कहता है, मैंने अपना दिन तो तेरी सेवा में पार कर दिया, अब मेरी रात भी तू हर लेना चाहती है। कितनी स्वाभाविक उक्ति है एक विश्राम प्रार्थी कवि की।

यह पुकार उसकी है जिसकी सेवा में कवि दिन भर रहा था। कवि अपनी कविता को छोड़ कर किसकी सेवा करेंगे? अतएव यह पुकार कविता-कामिनी की है। विश्राम के समय में भी वह कवि को छुट्टी नहीं देती। हृदय में उसकी पुकार खलबली मचा रही है—भाव के अनर्गल स्रोत उमड़ रहे हैं।

जब उस क्लान्त अवस्था में भी कवि अपने को संभाल नहीं सका तब उसके मुँह से यह उक्ति निकली—'यह लो, मेरा सब कुछ रहा, मैं तुम्हारी सेवा के लिये (कविता लिखने के लिये) तैयार होता हूँ। परन्तु यदि नींद से पलकें मुँद जायें—यदि थका हुआ इसलिये ढीला हाथ पहले वाली निपुणता (पहले की