पृष्ठ:रवीन्द्र-कविता-कानन.pdf/९५

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रवीन्द्र-कविता-कानन - एक तान यह हालत कर देती है । घर छोड़ कर बाहर आये हुए कवि को वह अपना विकल स्पर्श करा,—उसके कानों में पैठ कर अपनी तान-मुरकियों के साथ उसके हृदय में भी मरोर पैदा कर देती है। इतना ही नहीं, वह कवि को उसके घर की भी याद दिला देती है। घर में जिसे अकेली छोड़ कर वह बाहर निकल आया है, उसे भी उसके ध्यान-नेत्रों के सामने ला कर छोड़ जाती है और कवि देखता है कि उसकी प्रियतमा उसके पैरों में आंसुओं से कोमल प्रेम- बाँहों की जंजीर डाल रही है । बस चाल रुक जाती है। फिर वह उसे छोड़ कर बाहर जाने की इच्छा नहीं करता। फिर तो जिन व्रतों की पूर्ति के लिये वह बाहर निकला था, वे सब उनकी प्रेम-प्रतिमा के सामने झूठे जान पड़ते हैं। यह हालत भैरवी की एक तान से होती है, देखा आपने ? इसी भाव को पुष्ट करते हुए रवीन्द्रनाथ आगे लिखते हैं- "जारे फेलिया एसेछि, मने करि, तारे फिरे देखे आसी शेषवार; ओई कांदिछे से जेथो एलाए आकुल केशभार! जारा गृह-छाये बसि सजलन्नयन मुख में पड़े से सबार ।" (जी चाहता है, जिसे छोड़ कर चला आया हूँ, उसको एक बार और, और इस अन्तिम बार के लिये, क्यों न चल कर देख लूँ ? जी कहता है, वह रो रही है--उसकी केश राशि खुल कर बिखर गई है । घर की छाया में बैठे हुए सजल-नयन मेरे घर वालों का मुंह मुझे याद आ रहा है ।) "सेई सारा दिन मान सुनिभृत छाया तरु-मर्मर-पवने, सेई मुकुल - आकुल - बकुल - कुञ्ज भवने. सेई कुहु - कुहुरित विरह रोदन थेके थेके पशे श्रवणे !" (दिन भर की एकान्त छायावाली, पातों को हिलाती हुई हवा में मुकुलों के भार से व्याकुल हुए बकुल-कुंजों के कुटीर में गूंजता हुआ विरह-रोदन रह- कर मेरे कानों में पैठ रहा है।) .