पृष्ठ:रवीन्द्र-कविता-कानन.pdf/९६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

६२ रवीन्द्र-कविता-कानन कवि अपनी प्रियतमा पत्नी के रोदन की व्याख्या कर रहा है, उसका स्थान निर्देश कर रहा है । उसे याद माता है, उसकी पत्नी इस समय उस फुलवाड़ी में है जहाँ दिन भर छाया रहती है । और हवा पातों को झुला जाया करती है, जहाँ मुकुलित मौलश्री के अनेक कुंज हैं और बीच में बैठने का एक कुटीर । वहीं उसकी प्रिया उसकी याद कर-करके आँसुओं से आंचल भिगो रही है । कोयल की कुहू के साथ मिला हुआ उसकी प्रिया का विरह-रोदन उसके कानों में प्रवेश कर रहा है । यह इतना उत्पात, पाठक याद रखें, भैरवी की एक जरा-सी तान सुन कर होता है । x x x सदा एई केह व्रत आमि भवे करुण कण्ठे कांदिया गाहिबो-- "होलो ना किछई हबेना, मायामय भये चिर दिन किछु र'वे ना। जीवनेर जतो गुरुभार धूलि होते तुलि लवे ना। संशय माझे कोन पथे जाई, कारतरे मरी खाटिया ! कार पिछे दुखे मरितेछि, बुक फाटिया ! सत्य मिथ्या के करेछे भाग, के रेखेछ मत आंटिया ! काज निते हय, कतो काज आछे एका कि पारिबो करिते ! शिशिर-विन्दु जगतेर तृषा हरिते. आकुल सागरे जीवन सँपिबी एकेला जीर्ण तरीते ! देखिबो पडिल सुख-यौवन फुलेर मतन खसिया वसन्त-वायु मिछे चले गेलो यदि कांदे केन शेषे हाय