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रवीन्द्र-कविता-कानन
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श्वसिया!
सेइ जेखाने जगत छिलो एक काले
सेई खाने आछे बोसिया!"

(करुण-कण्ठ से सदा यह रो कर गाऊँगा—'कुछ न हुआ! कुछ होगा भी! नहीं!—न इस मायामय संसार में चिरकाल कुछ रहेगा ही! जीवन के जितने:गुरुभार हैं, उन्हें कोई धूल से उठा भी न लेगा। इस संशय में मैं किस पथ पर जाऊँ?—मैं इतनी मेहनत भी करूँ तो किसके लिये? वृथा दुःख से मेरी छाती फटी जा रही है! किसका दुःख! संसार में सत्य और मिथ्या का भाग किसी ने किया भी?—किसने मजबूती से अपना मत पकड़ रक्खा है ? अगर काम ही मुझे लेना है, तो काम बहुत-से हैं; मैं अकेला क्या कर सकता हूँ? मेरा यह प्रयत्न तो वैसा ही है जैसा संसार को प्यासा देख कर ओस की एक बूंद का रोना! क्यों मैं अकेला इस अछोर समुद्र की टूटी नाव पर चढ़ कर जान हूँ? परन्तु अन्त में हाय! अन्त में देखूगा, यह सुख का यौवन फूल-सा झर गया है। और वसन्त की हवा वृथा ही सांस ले कर चली जा रही है। इतने पर भी देखूँगा, यह संसार एक समय जहाँ था, वहीं बना हुआ है।'

ये कवि के संकल्प-विकल्प हैं। वह नवीन व्रत की साधना के लिये निकला है, परन्तु अब उसके पैर आगे नहीं बढ़ते। पिया का मुँह वह भूल नहीं सकता, यही उसकी कमजोरी है और संकल्प की प्रतिकूलता पर विचार करता हुआ वह कहता है, मेरी आकांक्षा वैसी ही है जैसी ओस के एक बूँद की, संसार की प्यास बुझाने के लिये। वह कहता है, अगर मैं लौट जाऊँ तो देखूँगा, क्रमशः मेरा यौवन मलिन हो कर वार्धक्य की जीर्ण भूमि पर फूल-सा झर कर गिर गया है। उससे कोई काम नहीं हुआ। वसन्त की हवा वृन्त को वृथा ही हिला-झुला कर चली जाती है। और संसार न एक पग बढ़ा न एक पग हटा। इस उक्ति में कवि का यही भाव है कि मनुष्य चाहे कुछ करे, संसार का आसन इससे नहीं डिगता, वह अपने ही स्थान पर अचल भाव से डटा रहता है, उसके पाप और पुण्य, सुख और दुःख, भाव और अभाव पूर्ववत् बने ही रहते हैं।