पृष्ठ:रसकलस.djvu/११३

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६६ , , जब इन बातो पर दृष्टि दी जाती है, तब यह स्वीकार करना पड़ता' है कि वास्तव में जितना व्यापक, उदात्त एवं सर्वदेशी, शृगार रस का आस्वादन है, अन्य रसो का नही । यह भी उसकी प्रधानता का असा- धारण प्रमाण है । फिर भी कुछ बाते ऐसी हैं, जिनपर और विचार होना आवश्यक है । साहित्यदर्पणकार के पितामह यह कहते है- रसे सारश्चमत्कार सर्वत्राप्यनुभूयते । तच्चमत्कारसारत्वे सवत्राप्यद्भुतोरस ॥ तस्मादद्भुतमेवाह कृती नारायणो रसम् || उत्तर रामचरित्रकार यह लिखते है- एको रस. करुण निमित्तभेदाद्भिन्न पृथक्पृथगिवाश्रयते विवर्तान् । आवर्त्तबुबुद्तरगमयान् विकारानम्भो यथा सलिलमेव हि तत्समस्तम् ।। इसी प्रकार कोई हास्य को प्रधानता देता है, और कोई शात को । एक विद्वान् ने भक्ति को रस मान कर उसी को सब मे प्रधान वतलाया है । सब रसों मे चमत्कार साररूप से प्रतीत होता है, इसलिये सर्वत्र अद्भुत रस पाया जाता है, इस सिद्धात पर दृष्टि रखकर पडितप्रवर नारायण एक अद्भुत रस को ही स्वीकार करते हैं । प्रत्येक रस जव पूर्ण विकसित अवस्था में होता है, तभी उसकी रस सज्ञा सार्थक होती है । यदि करुण रस विकास-प्राप्त है, तो अवश्य शोक स्थायी भाव प्रबल होगा, ऐसी दशा मे यदि चमत्कार के आधार विस्मय ने आकर उसको दवा दिया तो करुण का स्थान अद्भुत ने ग्रहण कर लिया, उसको रसत्त्व प्राप्त ही नहीं हुआ, फिर उसकी सत्ता कैसे लोप हुई । दूसरी बात यह कि यदि पूर्णता प्राप्त करुणरस मे चमत्कार का भी प्रवेश हा गया, तो विस्मय के आधार से अद्भुत रस उसका सहकारी मात्र होगा, इसलिये उसका स्थायी भाव, सचारी बन जावेगा, तब उसको रसत्व प्राप्त ही न होगा, फिर वह प्रधान कैसे बन वेठेगा । ऐसी दशा मे पडित जी का कथन युक्ति सगत नहा । आशा है, यह बात समझ मे आ गई होगी । इस विषय मे - .