१०० प्रधान रस बनाने की चेष्टा अबतक नहीं की, इसलिये मैं भी इस बात को नहीं उठाना चाहता। अब रहे वीर, रौद्र, भयानक और बीभत्स । बीभत्स और भयानक 'यथा नामस्तथा गुण' है, उनकी चर्चा ही क्या । पहले मैं यह लिख भी आया हू कि इनसे शृगार मे क्या विशेपता है, इसलिये इनको छोडता हूँ । वीर और रौद्र रस प्रधान रसों मे हैं। वीर का स्थायी भाव उत्साह और रौद्र का क्रोध है। प्राणी मात्र के जीवन के लिये दोनो की बडी आवश्यकता है। क्रोध के अभाव मे आत्मसर- क्षण नहीं हो सकता और उत्साह के अभाव मे जीवन यात्रा का यथार्थ निर्वाह नहीं हो पाता। वीर भाव जीवन को जाग्रत् और रौद्र भाव उसको सतर्क रखता है। ससार-कार्य-क्षेत्र उत्साह से हरा-भरा है और क्रोध से सुरक्षित । ससार की शांति वीरता का मुख देख जीती है और विश्व के दुर्जन, क्रोध की लाल आँखे देख कपित होते हैं। वीर के गले के विजय हार से वसुधरा सुगधित है और रौद्र के रक्त रंजित तल- वार से दानवी कदाचार कुठित । उत्साह हो चाहे क्रोध, वीर रस हो चाहे रौद्र रस, उनके जो सदेश अथवा लोकोपकारक भाव हैं, उनमे जो पवित्रता, उत्तमता, उज्ज्वलता और दर्शनीयता हैं वे सब शृगार समर्पित विभूतियाँ है । शृगार द्वारा ही वे उन्हें प्राप्त हुई हैं, क्योकि 'यत्किञ्चिलाक शुचिमध्यमुज्ज्वल दशनाय वा तन्छगारेणोपमोयते ।' ऐसी अवस्था में शृगार ही उनका शृगारक और उस हेतु का मूल है, जिसके लिये मगलमय विश्व मे उनकी सृष्टि हुई। अतएव इन दोनो रसो को भी शृगार से प्रधानता नहीं मिल सकती। किमी-किसी ने वात्सल्य रस को दसवॉ रस माना है और कुछ लोगो ने भक्ति को रस में परिगणित करने की चेष्टा की है। इतना ही नहीं, इनको सर्वप्रधान भी कहा गया है । वात्सल्य रस शोर्पक एक बहुत बड़ा लेख आगे आप लोगो का मिलेगा। मैंन उसमे इन दोनो के रसत्व के विपय मे बहुत कुछ लिखा है, परतु इनको रसों मे स्थान नहीं दे
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