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पृष्ठ:रसकलस.djvu/१२२

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70% विश्वमानव का चिरन्तन हृदयावग और जीवन-संबंधी मर्न कथा अपने आप प्रकट हो उठती है। 'जैसे एक प्रकार के कवि हैं. वने ही दूसरे प्रकार के वे कवि हैं. जिनको रचना के भीतर न नमत्र देश. ननन युन. अपने हय की अभिनता को प्रकट करने उनको नानव जाति की चिन्जालिक सामग्री बना देता है। 'इन दूसरे प्रकार के कवि को महाकवि कहा जाता है । समग्र देश और ननन जातियों को जन्वतो इसका महारा ग्रहण कर नकती है । ये लोग जो रचना करने है उतला किती व्यनि विशेष की रचना नहीं कही जा सकती। नात होता है मानों वह किती चिशाल वृक्ष के समान देश के भूतल जठर से स्पन्न होकर उनी देश को ही आश्रयदाया प्रदान करते है । शकुन्तला और कुमार-रंभर में विशेष भाव से चालि- दात को निपुण लवनी का परिचय निलता है। किंतु रामायण और महाभारत के विश्व में रहतान होता है कि पुरयलिला भगवती भागी- रखी और चल हिमाचल के नमान वे भारत की ही सम्पत्ति है- व्यान एव वाल्मीकि उपलजल मात्र है। ऋविर ग्वीदनाथ ने जो ऋवि और नहाकवि की विशेषता बत- लाई है, उससे अापको उन लोगों का नहत्य भलि-भॉति अवगत हो गया होगा, जो संस्कृत-नाहित्य के कत्ती है। कवि होना ही दुन्तर है. महा- कवि होना ना नाल्यतपस चन्दन है। मे बन्दनीय कवियों और महा- कवियों की रचनाओं में भी जो शृंगार रन का प्राधिय है, उसका ज्या कारण ? जो पुण्यश्लोक हैं. आर्य आदर्श के नम है, इन तमसा- छन्न काल में भी जो बालोक विक्षीण कर हमको पथ भ्रांत नहीं होने देते. क्या उन्होंने बटककर ऐसा दिया है ? एसी कल्पना नो स्वप्न में भी नहीं हो नयनी । वान्तविक बात यह है कि शृंगार रस को प्रधानता. व्यापकता, उचलता और दर्शनीयता ही उनको इन उच पद पर ,