1 -- आरूढ करती आई है। सस्कृत साहित्य ही नहीं, संसार के साहित्य को भी हाथ में उठाकर यदि आप देखेंगे तो उसमें भी शृगार रस इसी पद पर आरूढ़ मिलेगा। ऐसी अवस्था में यदि हिदी-साहित्य में शृंगार रस कुछ अधिक मात्रा में है तो आश्चर्य क्या । जिस स्वाभाविकता सूत्र में ससार की भापाएँ बेधी हुई हैं, उसे वह छिन्न कैसे करता। सब काल का श्रादर्श समान नहीं होता। आदर्श के अनुसार रुचि बदलती है और रुचि के अनुसार साहित्य में भी परिवर्तन होता है। साहित्य अपने समय का दर्पण होता है, जिस काल में उसकी रचना होती है, उस काल का अधिकांश चित्र उसमे यथातथ्य प्रतिबिंवित रहता है। किसी साहित्य की आलोचना करने के पहले, जिस काल का परि- णाम वह साहित्य है, उसपर दृष्टि रखना आवश्यक है । एक काल में भी विभिन्न विचार के लोग होते हैं, किंतु जो तत्व समाज द्वारा गृहीत हो जाता है, उस समय का आदर्श वही होता है। काल पाकर वह आदर्श उपयोगी न रहे, परतु अपने समय मे भी वह उपयोगी नहीं था, यह नहीं कहा जा सकता । विधवा-विवाह आर्य जाति मे कभी सम्मान की दृष्टि में नहीं देखा गया, विधवाओं के ब्रह्मचर्य पालन और आत्म- सयम की ही प्रशसा की गई है, और उनके त्याग का ही गुला-गान किया गया है। आज इस विचार की कुत्सा की जा रही है और विधवा- विवाह को ही उपकारक माना जा रहा है। विधवा-विवाह प्रचलित भी हो रहा है । कितु जिस समय विधवा-विवाह को अनुचित ठहराया गया, उस समय वैसा करना हो समुचित नहीं था, यह नहीं कहा जा सकता। साहित्य प्राय. सत्पथ पर चलने की ही चेष्टा करता है, यह दूसरी बात है कि काल पाकर वह पथ अच्छा न समझा जावे। यह माधारण सिद्धात है, अपवाद की बात और है। मत्कृत-साहित्य का एक काल ऐसा है, जिसमें साहित्य के प्रत्येक श्रग का मूक्ष्म विवेचन किया गया है और उनके विशेष अशो पर गहरी
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