सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:रसकलस.djvu/१४९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१३४ सुमन का सरस विकाश। भाव इनके इतने सुंदर हैं कि उपयोगिता उनमें से फूटी पड़ती है। यह उपयोगिता एकदेशी नहीं व्यापक है, और है पवित्र पाठों से पूर्ण- गिरि ते ऊँचे रसिक-मन, बूड़े जहाँ हजार । वहै सदा पसुनरन को प्रेम-पयोघि पगार ।। इक मीजे, चहले परे बूडे बहे हजार । कितने अवगुन जग करत नय-बय चढती बार || बिछुरे जिये समोच यह बोलत बनै न-वैन । दोऊ दौर लगे हिये किये निचौं हैं नैन । तच्यो ऑच अति बिरह की रह्या प्रेमरस मीजि । नैनन के मग जल बहै हियो पसीजि पसीजि || यद्यपि सुदर सुधर पुनि सगुनो दीपक देह । तऊ प्रकास करै तितो भरिये जितौ सनेह ।। जो चाहै चटकन घटै मैलों होय न मित्त । रजराजस न छुवाइये नेह चीकने चित्त ।। तनक ककरी के परे नैन होत वेचैन । वे वपुरे कैसे जियें जिन नैनन में नैन || प्राय कहा जाता है, गणिकाओं का वर्णन करके नायिका विभेद के ग्रथो में अनर्थ कर दिया गया है। किंतु गणिका के वर्णन मे भी विशेपता है, उसमे भी उत्तम पाठ मौजूद हैं। देखिये- धीरज मोचन लोचन लोल विलोकि कै लोक की लीकात छूटो । फूटी गये श्रुति ज्ञान के केसव आँख अनेक विवेक की फूटी । छोदि दई मरिता सब काम मनोरथ के रथ की गति टूटी। त्यो न करे करतार उवारक जा चितवै वह वार वधूटी ।। यदि कहा जावे कि इम पद्य मे वह नायिका रूप में वर्णित नहीं