पृष्ठ:रसकलस.djvu/१५४

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१३६ प्राकृत मे आया, और प्राकृत से ब्रजभाषा मे। ऐसा होना स्वाभाविक था, व्रजभापा ने स्वयं इसकी उद्भावना नहीं की। कुछ लोगो का विचार है कि स्त्री जाति के अंगो का वर्णन चिन नहीं, क्योकि यह एक प्रकार की अमर्यादा है । हास-विलास और प्रिया- प्रियतम की क्रीड़ाओ एवं उनके रसमय कथनोपकथन का चित्रण भी संगत नहीं, क्योकि उसमें अश्लीलता आ जाती है। मेरा विचार है, इस कथन में मार्मिकता नहीं । खोपड़ी खरौंचकर कुछ बातें कही गई हैं, परंतु उनमे सहृदयता का लेश नहीं। ऑखे विश्व-सौदर्य देखन के लिये बनी हैं, और हृदय भाव ग्रहण करने के लिये । कितु ये बाते कहती है आखों पर पट्टी बाँध लेने और कलेजे पर पत्थर रख लेने के लिये, सौंदर्य देखकर पशु विमुग्ध हो जावं, चिड़ियाँ चहकन लगे, परंतु मनुष्य को विशेपकर कवि को जीभ हिलाने का अधिकार नहीं ! यदि उसने सुंदर दॉत देखकर उसे मोती जैसा कह दिया, मुख को मयंक-सा, ऑखों को कमल-सा वतला दिया, तो मर्यादा पर वज्रपात हुए विना न रहेगा । यदि मर्द के दॉत मोता जैसे कह दिये जावे, तो शायद मर्यादा सुरक्षित भी रह जावे, कितु स्त्री के दॉत को मोती कहा नहीं कि उसपर बिजली गिरी नहीं । यदि योरप और अमेरिका की श्वेतांग ललनाऍ अपने अंग प्रत्यंगो की वर्णना रसमयी भाषा में कर अपने रूप-यौवन का विज्ञापन देती रहें, समाचारपत्रो के कालम के कालम काले करती रहें, तो वह हमारे पाश्चात्य सभ्यतानुरागियो के लिए संगत होगा, क्योंकि वे वर्तमान युग की अधिष्ठातृ देवियाँ है। प्रिया- प्रियतम के हास विलास, क्रीड़ा एव कथनोपकथनो से संसार का साहित्य क्यो न भरा हो, वे क्यो न नीरस जीवन की रसधारा हो, दुख भरे ससार के सुख-सदोह हो, कितु उनके अश्लील हो जाने का डर है, इस- लिये वे वर्णनीय नहीं। पानी इसीलिये नहीं पीना चाहिये कि वह खारा भी होता है, वायु सेवन इसलिये नहीं करना चाहिये कि उसमे तन