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पृष्ठ:रसकलस.djvu/१५८

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१४३ 1 समझना चाहिये कि मैं परंपरा के अधानुकरण का पक्षपाती हूँ। परंपरा वहीं तक ग्राह्य, है जहाँ तक वह आपत्तिजनक न हो । जब उसके द्वारा समाज अथवा जाति का अमंगल होता हो, जब उसके आधार से उनमे बुराइयाँ फैलती हो तो वह इस योग्य है कि उसकी उपेक्षा की जावे। इसको मैं स्वीकार करता हूँ। इसलिये जब मैं परंपरा की बात कहता हूँ तो उसका इतना ही प्रयोजन होता है कि प्रस्तुत विषय की उद्भावना ब्रजभाषा द्वारा नहीं हुई। कहा जा सकता है कि ब्रजभापा उसे छोड़ सकती थी, यह तर्क ठीक है । अतएप अब मैं यह देखू गा कि ब्रजभापा ने उसे क्यो नहीं छोड़ा-साहित्यदर्पणकार लिखते है- 'उत्तमप्रकृतिप्रायो रसः शृगार इष्यते ॥ परोढा वर्जयित्वा तु वेश्यां चाननु रागिणीम् । आलम्बन नायिकाः स्युदक्षिणाद्याश्च नायकाः॥ "अधिकांश उत्तम प्रकृति से युक्त-रस शृंगार कहलाता है। पर स्त्री तथा अनुराग-शून्य वेश्या को छोड़कर अन्य नायिकायें तथा दक्षिण आदि नायक इस रस के आलंवन विभाव माने जाते हैं। यह लिखकर भी साहित्यदर्पणकार ने परकीया और गणिका का वर्णन अपने ग्रंथ मे किया है। वे लिखते हैं- परकीया द्विघा प्रोक्ता परोढा कन्यका तथा। यात्रादिनिरतान्योदा कुलटा गलितत्रपा॥ कन्या त्वजातोपयमा सलज्जा धीरा कलाप्रगल्भा स्यादेश्या सामान्यनायिका ॥ "परकीया नायिका दो प्रकार की होती है। एक अन्य विवाहिता और दूसरी अविवाहिता कन्या। उनमे से यात्रा आदिक मेले तमाशों की शौकीन निर्लज्जा 'अन्योढ़ा' कहलाती है"। "अविवाहिता सलज्जा नवयौवना कन्या कहलती है और धीरा नृत्य गीतादि ६४ कलाओं में निपुण सामान्या स्त्री वेश्या" । नवयौवना।