१४४ कन्या के विषय में लिखते हैं, अस्याश्च पित्राद्यायत्तत्वात्परकीयात्वम् । यह पिता आदि के वश में होने से परकीया कहलाती है। इसके बाद स्वाधीनपतिका आदि आठ प्रकार की नायिकाओ को गिनाकर वे यह भी कहते हैं- इति साष्टाविंशतिशतमुत्तममध्याघमस्वरूपेण । चतुराधिकाशीतियुत शतत्रय नायिकाभेदाः। मतलव यह कि स्वीया के १३ भेदो में जब परकीया के दो भेद और एक वेश्या को मिलायेंगे तो उनकी सख्या १६ होगी। इसको स्वाधीन- पतिका आदि अाठ भेदों से गुणेंगे तो उनकी सख्या १२८ होगी । उत्तमा, मध्यमा, अधमा के विचार से यही सख्या ८४ हो जायगी। इससे यह पाया गया कि स्वकीया, परकीया के समान गणिका के भी स्वाधीन- पतिका आदि आठ भेद हो सकते हैं और उनमे भी 'उत्तमा' आदि का क्रम रखा जा सकता है। साहित्यदर्पण मे गणिका अथवा परकीया के इन भेदों का वर्णन नहीं है। परंतु 'रसमजरी' में इनका विलक्षण निरूपण है। 'रसमजरीकार' भानुदत्त की उपस्थिति षोड़श शताब्दी मे बतलाई जाती है। नाट्य-शास्त्रकार ने अपने ग्रथ में स्वीया, परकीया, एव सामान्या का वर्णन इस प्रकार से नहीं किया है, जिस प्रकार से उक्त ग्रथो मे पाया जाता है। कितु उन्होंने इतनी नायिकाएँ अपने ग्रथ मे लिखी हैं कि उनमे इन सवका अतर्भाव हो जाता है। वाईसवें अध्याय में वे लिखते है- वेश्यायां कुलटाया वा प्रेष्यायां वा प्रयोक्तृभिः । एमिर्भावविशेषैस्तु कर्तव्यमभिसारणम् ॥२१८॥ तेइसवे अध्याय में आठवें श्लोक में वे यह कहते हैं- दिव्या च नृपपत्नी च कुलस्त्री गणिका तथा । एतास्तु नायिकानेवा नाना प्रकृतिलक्षणाः।
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