पृष्ठ:रसकलस.djvu/१६८

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1 , १५३ जिनका नाम लेना भी अश्लीलता है, फिर भी वे शरीर में हैं और उपयोगी हैं। इसी प्रकार वेश्याएँ कितनी ही कुत्सित क्यो न हो, पर वे समाज का एक अंग हैं और उनका भी उपयोग है। इसीलिये साहित्य मे उनकी चर्चा है। किंतु यह स्मरण रहे कि जहाँ उनका वर्णन है, वहाँ उनकी कुत्सा ही की गई है। नायिका-विभेद के ग्रंथो मे उनको स्वार्थ- ‘परायण ही अंकित किया गया है। उनके कपटमय मानसिक भावों के चित्रण में जैसी उच्च कोटि की कविताएँ की गई हैं, कला की दृष्टि से उनकी जितनी प्रशंसा की जावे, थोड़ी है। कामुकों के अॉख खोलने, और लम्पटों को सावधान करने की भी पर्याप्त सामग्री उनमे पाई जाती है जब एक वेश्या के मुख से कोई कवि कहलाता है-'नाथ हमै तुमैं अंतर पारत हार उतारि इतै धरि राखो'-उस समय जहाँ वह ‘कवि कला का कमाल दिखलाता है, एक स्वार्थमय मानस का विचित्र चित्र खीचता है, वही यह भी बतलाता है कि किस प्रकार गणिकाओ की मधुरतम वातों मे प्रतारणा छिपी रहती है, और कैसे वह प्रेम का कपट जाल फैलाकर कामुको को फॉस लेती है। इस पद्य में विवेकियों के लिये यह सुंदर शिक्षा है, और असावधानो के लिये सावधानता का मंत्र । इलिये जिस दृष्टि से देखा जावे साहित्य मे गणिकाओ का नायिका रूप से ग्रहण असंगत नही ज्ञात होता । एक बात और सुनिये। हाल मे अमेरिका की किसी कौंसिल में यह प्रस्ताव उपस्थित किया गया कि वहाँ की गणिकाये नगर के बाहर बसाई जावे, और नगर मे रहने का उनका अधिकार हरण कर लिया जावे। प्रस्ताव उपस्थित होने पर यह तय पाया कि पहले यह निश्चित कर लिया जावे कि किन आधारो से कोई स्त्री गणिका मानी जा सकती है । यह बात म्वीकृत हुई और आधार निश्चित किये जाने लगे। किंतु कोन गणिका है और कौन अगणिका यह निश्चित करने में इतना विवाद बढ़ा कि कोई बहुसम्मत आधार ही निश्चित न हो सका । परिणाम यह हुआ कि प्रस्तावक ,