पृष्ठ:रसकलस.djvu/१७५

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१६० भाव इतना प्रबल हुआ कि सत्-असत् का ज्ञान ही जाता रहा । मंदिरो मे भजन करने के लिये बैठे हैं, श्रोतृमडली भगवत् गुणानुवाद सुन- कर पुण्य-सचय करने के लिये एकत्र है। कितु हम प्रारभ करते हैं, ऐसे गान और पढ़ने लगते हैं ऐसी कविताएँ जिनको सुनकर निर्लन्ना के कान भी खड़े हो । परतु सोचते हैं यही कि स्वर्ग का द्वार उन्मुक्त हो रहा है और हम पर पुष्प-वृष्टि करने के लिये गगन-पथ में देवताओ. के विमान चले आ रहे हैं । इससे बढकर दूसरा अज्ञान क्या होगा ? कहते मर्मपीडा होती है कि यह अन्नान हम लोगो मे इतना घुसा कि उससे समाज का बहुत बड़ा अपकार हुआ, आज भी हो रहा है, कितु हमारी आँखे ठीक-ठीक कहाँ खुली । यह मैं स्वीकार करता हूँ कि प्रेम-देव भगवान् श्रीकृष्ण और प्रेम-प्रतिमा श्रीमती राधिका को लाभ कर व्रजभापा-साहित्य मे वह जीवन आया और उसका ऐमा शृगार हुआ कि न भूतो न भवि- प्यति । ब्रजभूमि ने यदि उसे भव्य बनाया, तो कलिदतनया ने उसमे वह रम-धारा बहाई, उसको उन ललित लहरियों से लसाया, उन कल- कल रवो से और मनोहर दृश्यो से सुशोभित किया कि जिसकी प्रशसा शत मुख से भी नही हो सकती । कहाँ है वृन्दावन सा बन और कहाँ हैं ब्रज की कलित कुजो-सी कुजें । किस भापा की कविता मे वह अलौकिक मुरलिका वजी, वह विश्व विमुग्धकर गान हुआ, जिसका सुन पशु-पनी तक विमुग्ध हो गये, वृक्ष का पत्ता-पत्ता पुलकित हो गया। किस काव्य ससार को मनमोहन-सा रसिक शिरोमणि, माधव-सा मधुर हृदय, कोटि काम कमनीय कृष्ण-सा लोकमोहन और अखिल कलाकुशल केशव सा कामद कल्पतरु प्राप्त हुआ । किस साहित्य ने श्रीमता राधिका- सी लोकललाम रमणी, वृषभानु-नदिनी-सी प्रेमपरायणा, सरल-हृदया, त्यागमयी, आनंद की मूर्ति युवती पाई । कितु दुःख है कि कुछ अविवेकी कवियो ने इस महत्त्व को नहीं समझा और उलटी ही गंगा बहाई । ,