१७४ विश्ववधुत्व के विरुद्ध समझते हैं। वे कौड़ी बड़ी दूर की लाना चाहेंगे, पर घर की लुटती मुहरो के बचाने से बचेंगे। ऑसू की लडियो को लेकर मोती पिरोवेंगे, पर भारतमाता के ऑसुओं की उन्हें परवा नहीं। वे राग गायेगे ससार भर के भ्रातृभाव का, किंतु अपने भाई का गला कटता देखकर आँखें बंद कर लेंगे। वे शिक्षा देंगे अहिसा वृत्ति की 'परतु उनके हृदय में प्रतिहिसा-वृत्ति ही चक्कर लगाती रहती है। जाति का स्वर विगड जावे, देश का गला न चले, समाज की घिग्घी बँध जावे, तो वे क्या करेंगे, वे तो अपनी टूटी वीणा उठावेंगे, और मस्त होकर 'उमे बजाते रहेंगे, चाहे उसको कोई सुने या न सुने । यदि कहीं से वाह- बाह की आवाज आ गई तो फिर क्या मॉगी मुराद मिल जावेगी। तीसरे दल में कुछ प्राचीन और कुछ युवक कवि हैं। उनकी सख्या थोड़ी है, परतु मातृ-भाषा के सच्चे सपूत वे ही हैं । वे ब्रजभाषा को सर ऑखो पर रखते है, और खडी बोली को गले लगाते हैं, उनको दोनो से प्यार है। वे हिंदी-भाषा की दोनों मूर्तियों को सर नवाते हैं, और दोनो को ही अर्चनीय समझते हैं। उनका विचार है, प्रतिभा किसी एक की नहीं, ब्रजभाषा मे भी उसका विकाश देखा जाता है, ओर खडी बोली में भी। उन्हें भाव चाहिये, चाहे वह व्रजभापा में मिले, चाहे खड़ी बोली में । वे ब्रजभाषा के प्राचीन कवियो को गुरु मानते हैं, और कहते हैं कि ये हो वे महापुरुप हैं, जिन्होंने हिंदी-भापा का अलकृत किया, उसे रनो से सजाया, उसमें जीवन डाला, उसको सुधामयी वनाया, और उसकी वह सेवा की जो अलौकिक कही जा । सकती है। ये उन नवयुवक सुकवियो का भी आदर करते हैं जो खडी । बोली को सुरभित सुमन प्रदान कर रहे हैं, उसे सरस, मधुर और भावमयी बना रहे हैं, उसमे वह शक्ति ला रहे हैं, जिससे वह ज्योतिर्मयी, नव-नव उक्तिमयी, अनुपमयुक्तिमयी, रागमयी और देशानुरागमयी, बन सके। वे सोचते हैं, मातृ-भापा के सेवको मे परस्पर कलह-विवाद -
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