कलिकाएँ खिल जाती है, क्योकि वह जानता है कि मनुष्य-जीवन से उसका कितना सरस संबंध है। आजकल हिंदी-साहित्य के सामने एक और विषम समस्या उपस्थित है, चाहे गद्य हो चाहे पद्य, उसमें इन दिनों एक विचित्र 'ऊधम मचा हुआ है । कुछ स्वतंत्र विचार के जीव इस उच्छ खलता के विधाता हैं। उनका संबंध इन तीनो दलो में से किसी से नहीं है, वे निरंकुश है, और हैं अपने मन के, परन्तु देश प्रेम के पर्दे मे अपने को छिपाये हुए हैं। किसी के पास जाति-सुधार का बल है, और किसी को समाज- सेवा की लगन । कोई प्रचलित रूढ़ियों के मिटाने का दीवाना है, और कोई हिदुओ की वशगत बुराइयो के दूर करने का कामुक । एक स्कूल-कॉलेजो के अध्यापकों और छात्रो के दुश्चरित्री की आलोचना करता है, तो दूसरा स्री-जाति की दुर्दशाओ का हृदय विदारक चित्र अंकित करने मे लग्न है। कोई जाति-बंधन तोड़ना चाहता है, कोई अछूतों के उठाने का प्रयत्न करता है; परन्तु इनमे कितने प्रति- हिसापरायण है, और कितने अर्थलोलुप। कितने वृत्ति के दास है, कितन कुचरित्र । कितने दुर्जन और दुष्ट-प्रकृति है, कितने अपवित्र हृदय और लपट । कितने नाम चाहते है, कितने दाम । कितने अपने पत्र का प्रचार चाहते हैं, कितने अपनी पुस्तको का प्रसार । वेप उनका मराल का है, परन्तु चाल बगला की । वे मुख से और लेखनी से सदुद्देश का प्रचार करते हैं, परंतु हृदय से है वायसवृत्ति, मलिन पदार्थ को ही प्यार करते हैं। उनके हाथ मे झंडा है उपकार का, कितु उनका व्रत है अपकार । ऐसे लोगो के हाथो में पड़ कुछ पत्रो और पत्रिकाओं मे आजकल ऐसे लेख निकल रहे हैं, जिससे स्त्री पुरुष के द्वंद्व की मात्रा प्रति दिन वर्द्धनोन्मुख है, कितु इन दिनो ऐसे लेख लिखना समाज-सेवा समझा जाता है। यदि कुछ स्त्रियाँ पुरुपों के अत्याचार के लेख लिख- लिखकर कालम के कालम काले करती है, तो स्त्रैण पुरुष उनका कान भी १२ ,
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