१७८ " . . काटते हैं वे पुरुप जाति को भरपेट गालियाँ दे डालते हैं। इस तरह के लेख आद्योपात अश्लीलतामय होते हैं, परतु यह है इस काल का प्रधान कर्तव्य, और पुरुप जाति को निष्पक्षपातिता का प्रमाण पत्र लाभ करने का प्रधान अवसर । चाहे समाज ध्वंस क्यो न हो जावे, और पाश्चात्य देश के समस्त दुर्गुण पवित्र भारतवर्ष मे क्यों न फैल जावें। इतना ही नहीं, आजकल कुछ ऐसे गदे उपन्यास निकल रहे हैं, और उनमे ऐसे कुत्सित और घृणित चरित्र अफित होते हैं कि अश्लीलता उनको स्पर्श नहीं कर सकती, और बेहयाई उनकी ओर आँख उठाकर देख नहीं पाती । परतु उनमे है हिंदू जाति की बुराइयो का कच्चा चिट्ठा, जिनके प्रदर्शन विना सुधार हो ही नहीं सकता, फिर उनको क्यो न फड़- कते शब्दो मे लिखा जावे, कोई पागल 'घासलेटी' 'घासलेटी' भले ही चिल्लाये, उनकी सुनता कौन है। ऐसी और वातें बतलाई जा सकती हैं, जिनसे दिन दिन हिंदी-साहित्य की समस्या जटिल हो रही है, किंतु क्या उसका उचित प्रतीकार हो रहा है। ब्रजभाषा में शृगार रस का दुरुपयोग हुआ, और यह निस्सदेह सामयिक दुर्गुण था, जो विलास- प्रिय बादशाहो, राजाओ, महाराजाओं के कारण उसमें आया । इस एक दुर्गुण के कारण, अनेक गुण गौरवशालिनी ब्रजभाषा की निंदा हो रही है, और वर्तमान काल का पठित समाज यह कार्य कर रहा है। परतु आज यह क्या हो रहा है ? उस समय मे जिस समय विश्वमोहिनी पाश्चात्य मभ्यता की विमुग्धकर ज्योति से भारत वसुंधरा प्रकाशित है, यह महा अनमोल माहिल का घना अधकार उसमें क्यो फैल रहा है ? मैं समझता है मामयिक दुर्गुणों का ज्ञान प्राय समय पर नहीं होता। काल पाकर जव दुर्गुणो के दोप प्रकट होने लगते हैं, उस समय उसका यधार्थ ज्ञान होता है। मुसलमान राज्य के कारण जो दुगुण ब्रजभाषा में पाये, उस समय कई कारणो से वे ही उपयोगी जान पड़े, इसी लिये दे अधिकाश लोगों में गृहीत हुए । क्या उस समय दुर्गुणो के विरोधी यहाँ
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