१८८ का का मक भरे फूलों का दोना हँसती हुई आँख का टोना । लेनेवाला मोल मनों खरा चमकनेवाला सोना ॥५॥ साय रग-रलिया के खेला मीठा बजनेवाला वेला । मनमानापन मतवाला बड़ा लड़कपन है अलवेला ॥६॥ चंद-खिलौना चदा मामा दौडे आओ दूध कटोरा भरकर लायो । उसे प्यार से हमें पिलाओ मुझपर छिपक चाँदनी जाओ॥१॥ मैं तेरा मृगछौना लूंगा उसके साथ हँसूं खेलूंगा। उसकी उछल कूद देखूगा उसको चाटुंगा चूगा ॥२॥ तू है अगर चाँदनीवाला तो मैं भी हूँ लाल निराला । जो तू अमृत है बरसाता तो मैं भी रस-सोत वहाता ॥३॥ जो तेरा किरणं है न्यारी तो मेरी बातें हैं प्यारी । न है मेरा चद खिलौना मैं हूँ तेश छुन्ना मुन्ना ॥४॥ वाल-विभव घालको मे कैसी आकर्पणी शक्ति होती है, उनके भाव कितने भोले होते हैं, उनमे कितनी विनोदप्रियता, रजनकारिता और सरसता होती है, ऊपर की रचनाओ को पढ़कर यह बात भली-भाँति हृदयगम हो गई होगी। ऐसे बालक किसके वल्लभ न होगे, कौन उन्हें देखकर उन्फुल्ल न होगा, कौन उन्हे प्यार न करेगा, और वे किसके उल्लास-सरोवर के सरसीरुह न बनेगे ? मॉ-बाप के तो वालक सर्वस्व होते है, ऐमी अवस्था मे उनको देखकर उनके हृदय में अनुराग संबधी प्रनक सुदर भावों का उदय होना स्वाभाविक है । माँ-बाप अथवा गुरुजनो का यह भाव परिपुष्ट होकर विशेप आम्वाद्य हो जाता है, वही, कुछ महदय जनो की सम्मति है कि वात्मल्य रस कहलाता है। अधिक- तर प्राचार्यों ने नौ रस ही माने हैं वे वात्सल्य भाव को अलग रस . , -
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