पृष्ठ:रसकलस.djvu/२०९

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१६४ आप यह वाक्य देख चुके हैं, "केचिदाहुरेक एव शृगारो रस इति" जिससे पाया जाता है कि कोई-कोई आचार्य श्रृंगार रस को ही रस मानते हैं, और किसी रस को रस मानना ही नहीं चाहते । साहित्यदर्पणकार लिखते हैं कि उनके पितामह पंडितप्रवर नारायण अद्भुत रस को ही रस मानते हैं अन्य रसो को वे स्वीकार ही नहीं करते । यथा- "रसे सारश्चमत्कार सर्वत्राप्यनुभूयते । तञ्चमत्कारसारत्वे सर्वत्राप्यद्भुतो रसः ।। तस्मादभुतमेवाह कृती नारायणो रसम् ।" "सव रसो मे चमत्कार साररूप से प्रतीत होता है। और चमत्कार (विस्मय) के साररूप (स्थायी) होने से सब जगह अद्भुत रस ही प्रतीत होता है, अत पडित नारायण केवल एक अद्भुत रस ही मानते हैं।" उत्तररामचरितकार करुण रस को ही प्रधान मानते हैं, वे लिखते हैं- एको रस. करुण एव निमित्तभेदाद्भिन्नः पृथक् पृथगिवाश्रयते विवर्त्तान् । आवर्त्तबुद्बुदतरगमयान् विकारान् अम्भो यथा सलिलमेव हि तत्समस्तम् ॥ "एक करुण रस ही निमित्तभेद से भिन्न होकर पृथक्-पृथक् परिणामों को ग्रहण करता है। जल के श्रावर्त्त, बुद्बुद, तरगादि जितने विकार हैं, वे समस्त मलिल ही होते हैं।" नाट्यशान्त्रकार ने आठ ही रस माने हैं । यथा- "शृगारहास्यकरुणरीद्रवीरभयानका. । वीमत्साद्भुतसशो चेत्यष्टौ नाट्य रसाः स्मृताः ॥" "नाट्य मे शृंगार, हाम्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, बीभत्स और अद्भुत आठ रम माने गये हैं।" काव्यप्रकाशकार ने नवॉशांत रस भी माना है । यथा- "निवेदस्थायिभावोऽस्ति शातोऽपि नवमो रसः।" "नवम रम शांत है जिसका स्थायी भाव निर्वेद है" रमगंगाधरकार कहते हैं-