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पृष्ठ:रसकलस.djvu/२१३

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१६८ चाहिये, क्योकि उन लोगों की रति अलौकिक आनददायिनी नहीं होती, परमानंदस्वरूप परमात्मा की भक्ति के विपय में यह बात नहीं कही जा सकती। कातादिविपयक रसो में रसत्व का पोषण यथेष्ट नहीं होता, क्योंकि उनको पूर्ण-सुख स्पर्श नहीं करते। प्राकृत क्षुद्र रसो से परिपूर्णरसा भगवद्भक्ति वैसी ही बलवती है, जैसी खद्योतो मे आदित्य की प्रभा। सभव है, इस उक्ति को रंजित माना जावे, किंतु अभिनिविष्ट चित्त से विचार करने पर वह सत्य समझी जावेगी। भक्ति नव प्रकार की होती है। "श्रवण कीर्तन विष्णो स्मरण पादसेवनम् । अर्चन वदन दास्य सख्यमात्मनिवेदनम् ॥" भारतेंदुजी ने जिन नवीन रसो की चर्चा अपने लेख में की है, लगभग उन सब का अतर्भाव भक्ति से हो जाता हैं । भक्ति दास्य ही नहीं है, यह बात इस श्लोक मे स्पष्ट हा गई। प्राचार्यप्रवर मधुसूदन 'सरस्वती' की उक्ति का समर्थन भी अधिकाश में नवधा भक्ति करती है। पादसेवन से लेकर दास्य, सख्य, श्रात्मनिवेदन तक भक्ति का चमत्कार है । दाम्पत्य धर्म का सर्वस्व भी दास्य, सत्य और आत्मनिवेदन है । यो तो भगवदाज्ञा है, कि 'ये यथा मा प्रपद्यते तास्तथैव भजाम्यहम्', कितु व्यापक भगवदुपासना तीन ही रूप मे होती है । १-पिता-पुत्र भाव,२--स्वामी- सेवक भाव और ३-पति-पत्नी भाव मे । शृगार रस मे प्रधान नायक पति और नायिका स्वकीया होती है। ऐसी अवस्था मे शृगार रस का भी अधिकाश भक्ति के अतर्गत या जाता है । कबीर साहब निर्गुण उपासक माने जाते हैं। कुछ लोग उनका आधुनिल सत मत के निर्गुण उपासको का आचार्य भी समझते हैं। निर्गुण उपासना का अधिकाश सबंध ज्ञानमार्ग से है, उसका श्राध्यात्मिक उत्कर्ष बहुत कुछ बतलाया जाता है। किंतु जब भक्ति अथवा प्रम का उद्रेक हृदय में होता है, तब सगुण उपासना ही नामने आती है, और उपासना के उक्त तीनो रूपा में से किसी एक का अथवा नीनो का आश्रय चित्त की वृत्ति के अनुसार