पृष्ठ:रसकलस.djvu/२१८

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" -> २०३ 'मेरे एकात भक्त धीर साधुजन कुछ नहीं चाहते, मम प्रदत्त कैवल्य और अपुनर्भव की भी कामना नहीं रखते।' रहा सर्वांग का सुधारस- सिंचित होना, इसका अनुभव किस भावुक पुरुप को नहीं है? जिस समय किसी देवालय तथा किसी सात्विक स्थान-विशेष मे भक्तिमय भगवद्-सुयश का गान प्रारंभ होता है, अथवा जब किसी भक्तिरस-पूर्ण हृदय के मुख से उनकी कथामृत की वर्षा होने लगती है, उस समय कौन है जो सुधास्रोत मे निमग्न नहीं हो जाता ? परम भागवत राजा परीक्षित भक्ति-अवतार श्रीशुकदेवजी से क्या कहते है; सुनिये- "नेपातिदुःसहा क्षुन्मा त्यक्तोदमपि बाधते । पिबंत त्वन्मुखाम्भोजच्युत हरिकथामृतम् ।।" 'परम दुःसह क्षुधा और पिपासा भी मुझको बाधा नहीं पहुंचा रही है, क्योकि आपके कमल-मुख से नि सृत सुधा मै पान कर रहा हूँ।' जो सुधा अंग-अग को शिथिल कर देती है, शरीर को निर्जीव बना देती है, जो पिपासा यह बतला देती है, कि जीवन का आधार जीवन ही है, राजा परीक्षित कहते है, कि वही क्षुधा और वही पिपासा, सो भी साधा- रण नहीं, परम दु.सह, उनको बाधा नहीं पहुंचाती है, उनकी आकुलता अथवा निरानंद का कारण नहीं होती है, इस कारण कि वह एक भक्ति- भाजन महात्मा के मुख से निकले हरिकथामृत का पान कर रहे है। आपने देखा, भक्तिरस का सर्वाग में सुधा-सिचन । यदि भक्ति मे यह शक्ति न होती तो क्या राजा परीक्षित के मुख से ऐसी अपूर्व वात कभी निकल सकती ? आपमे यदि कभी भक्ति का उद्रेक होता है, या यदि कभी आपने किसी भक्ति-उद्रिक्त प्राणी का अभिनिविष्ट चित्त से देखा है, तो आपको इस वात का अनुभव होगा कि जिस समय हृदय मे भक्ति-स्रोत प्रवाहित होता है, उस समय उसकी क्या दशा होती है। क्या उस समय समस्त अंगो मे अलौकिक रस-सिंचन नहीं होने लगता, क्या यह नही ज्ञात होता कि शरीर पर कोई अमृत-कलस ढाल रहा है,