२० कोई रग-रग मे किसी ऐसे आनद को धारा प्रवाहित कर रहा है जिसका प्रास्वादन सर्वथा लोकोत्तर है ? यही तो सवाग में सुधारस सिचन है । ब्रह्मानद का अनुभव ऐसे ही अवसरो पर तो होता है। भक्ति रस के अतिरिक्त दूसरा कौन रम है, जिसके द्वारा ब्रह्मानद की प्राप्ति यथा- तथ्य हो सके ? रस को ब्रह्मानंद सहोदर कहा है, किंतु भक्ति रस मे ही इस लक्षण की व्याप्ति है । सांख्यकार ने त्रिविध दुःख की अत्यन्त निवृत्ति को परम पुरुपार्थ कहा है। किंतु भक्तिरस-सिक्त मनुष्यों को दुख का अनुभव होता ही नहीं, क्योकि 'ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति' वह जानता है, 'सवै खल्विद ब्रह्म' । वह समझता है 'आनदाये न खल्विमानि भूतानि जायते आनदेन जातानि जावति 'आनद प्रयान्त्यभिस विगति' । आनद ब्रह्मणो विद्वान् तस्यैवानदस्यान्ये मात्रामुपजीवति' और किस रस में इस सिद्धात के अनुभव की शक्ति है ? भक्ति ही वह आधार है जिसके आश्रय से इस भाव का विकाश होता है। भक्तिमान को छोडकर कौन कह सकता है, 'राम-सिया- म्य सब जग जानी । करहुँ प्रणाम जोरि युग पानी ॥' कौन कह सकता है- वर्ग दरख्लान सब्ज दरनजरे हाशियार । हरवरक दफतरेस्त मारफते किर्दगार ॥ 'दृष्टा की दृष्टि में हरे वृनो का एक-एक पत्ता परमात्मा के रहस्य-प्रथ का पक-एक पन्ना है। कितनी गहरी भक्तिमत्ता है । गुरु नानक देव कहते हैं- गगन तल थाल रवि चट दीपक बने तारकामडला जनुक मोती । प मलयानिलो पवन चॅवरो करै सरल बनराय फुलत जोती ॥ केसी आरती होय भव खडना । "गगनतल के थाल मे तारकमडल मोती के समान जगमगा रहे हैं, मर्य चद्र उममे दोपक महश शोभायमान हैं। मलयानिल धूप का काम देता है. ममीर चमर झलता है, समस्त तरु पुष्प लेकर खड़े हैं, इस प्रकार भवभयनिवारण करनेवाली परमात्मा की अखड आरती होती रहती है। कैसी उदात्त और शानदमयी कल्पना है । जिमकी भक्ति के उच्छवास नेलमार को परमानदमय बना दिया है, उसी के प्रफुल्ल ह्रदय का
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