पृष्ठ:रसकलस.djvu/२४८

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रस-कलस मंगलाचरण मनहरण कुंठितकपालन की कालिमा कलित होति अवलोके सुललित लालिमा पदन की । सुंदर - सिंदूर - मंजु गात सुख वितरत दरत दुरित-पुंज दिव्यता रदन की । 'हरिऔध' सकल अमंगल विदलि देति मंगल-कलित कांति मंगल-सदन की। संकट समूह-सिधु-सिंधुता बिलोपिनी है बंदनीय सिधुरता सिंधुरबदन की ॥ १ ॥ तुरत तिरोहित अपार उर-तम होत पग - नख - तारक - प्रसूत जोति परसे । रुचिर विचार मंजु सालि बहु बिलसत जन-अनुकूलता विपुल बारि बरसे ।। 'हरिऔध' सब-रस-बलित बनत चित दयावान मन के सनेह-साथ सरसे । सकल अभाव, भाव भूति भव-भूति होति भारती-विभूति भूतिमान मुख दरसे ॥ २॥