पृष्ठ:रसकलस.djvu/२५३

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रस-अलस ६ चंद - मुख की ही बनी रहति चकोरिका है सरस-सनेह-स्वाति-बूंद की है चातकी । प्यारो तन कारो करि राखति नयन- तारो वारति गोराई वा पैगोरे-गोरे गात की ।। 'हरिऔध' औगुनी को औगुनहूँ गुन होत देति है कुबातहूँ को उपमा नबात की। पात लौ हिलति पवि-पात सिर पै है होत पातक-निरत पतिहूँ को कहे पातकी ।।२।। वदनीय-विरद विलोकि पुलकति वाल पावन बिचार की प्ररोचना मैं वोरी है। विमल विवेक की बिमलता वखानति है कीरति-कलित - रस - कनक - कमोरी है ।। 'हरिऔध' गौरव निहारि गौरवित होति गुन-गन-गान ते गरीयसी न थोरी है। चावमयी पिय-चाव-स्वाति-जल-चातकी है रुचिर-चरित-चारु-चंद की चकोरी है ॥३॥ भाग भोग राग ते सोहाग को सराहति है सजिकै सहज साज वनति सजीली है। फल ते फवति न फवति कनफूल ते है मन की फवन ही ते फवति फबीली है ।। हरिऔध' भावमयी भाव-सिंधु-इंदिरा है माधव-मधुर-छवि-छकित छवीली है। गैरव गनति है अगौरव-दरव कॉहि पति - प्रेम - गौरव गरव - गरवीली है ||४||