पृष्ठ:रसकलस.djvu/२५५

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रसकलस कवित्त--- काके वाल वाल लोक-कालिमा-निकेतन हैं काके मद-भाल पै कलक-अक ऑके हैं। काकी केलि सकल प्रवचना-सहेलिका है काके हाव-भाव पाप-पथ के पताके हैं। 'हरिऔध' वार-बनिता-सी को बिलासिनी हे छल-छद-छुरे काके अंग छवि-छाके हैं। गरल-भरित काके बयन सलोने अहै लोने-लोने नयन लहू मैं सने काके हैं।॥८॥ उबरि उबरिहूँ न उबरि सकत कोऊ बार-बार बारिधि-विपत्ति महिं बोर है। सुधा-सने बैन कहि कबहूँ निहोरति है तेह करि नेह के तगा को कचौँ तोरै है। कवहूँ चुरैल की चची बनि चिचोरति है कवौं चाव चौगुनो दिखाइ चित्त चोर है । रच न सकाति के अकिचन कुबेरहूँ को कचन-से तन कोहि कचनी निचोरै है || सवैया- वैन बिचारि विन सों कहे तवह पत बापुरे की न बची रहै। ताकि सकै नहिं सौ है पिया तऊ त्योर चढे रहें तेह-तची रहै ।। जी उचटावन में 'हरिऔध' चुरैलहू को बनी खासी चची रहै। रोम रहै रस की बतिया? मैं प्यारहूँ मैं महा रार मची रहै ।।१०|| २-हास विचित्र वचन-चातुरी अथवा विनोटपूर्ण रूप-रचना के प्रभाव से आनन्द- युन मनोविकार को 'दास' कहते हैं।