पृष्ठ:रसकलस.djvu/२५६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

स्थायी भाव - कवित्त विना पूंछ वानर बनाइ मत पीयूँ पर पूछत न वात तो पकरि न पछारि दै। कारो हाँ कुरूप हौ मैं तू तो रूपवारी अहै चूमन न देत तो कवी तो चुमकारि दे। 'हरिऔध' सूधो कहा साधहूँ रखत नाहि तू तो सुधरी है मेरी विगरी सुधारि दें। घरी-धरी घूरन चहत घरवारो तोहि एरी घरवारी नेक बूंघट उघारि दै।।१।। नेक ही नजर बदले पै ना परत कल कौन कहै ताको होत हाल फिरके पै जौन । हुकुम के मारे सदा नाक मैं रहत दम आनन बिलोकत ही होत दिन-रैन गौन ।। 'हरिऔध' एतेहूँ पै वचत न क्यों हूँ प्रान मुख ते कढ़त याते नहिँ रहि जात मौन । मरद विचारो जाते हारो सो रहत होस ऐसी सवला को काहे अबला कहत कौन ।।२।। कैसे तो न तुपक निहारि ऑखि तोपि लेहि बार-बार छाती जो छरो के छुए धरके। कैसे उतपात नाम ही ते ना सकात रहे थर-थर गात कॉपि जात पात खरके ।। 'हरिऔध' कहै कैसे कवौँ अरि सौ हैं होहिं जात हैं रसातल जो पॉव ही के सरके। कैसे डरे दौरि कै न द्वार के किवारे देहि का करें बिचारे हैं दुलारे वीरवर के ॥३॥