पृष्ठ:रसकलस.djvu/२५८

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स्थायी भाव (क) स्मित जब नेत्रों तथा कपोलों पर कुछ विकास हो और अपर आरंजित तब 'स्मित' होता है, इसमें दाँत नहीं निकलते। आश्रय-स्थान-भीर और शिष्ट- जन-मुख-मडल। सवैया- अनखान भरे सब सौतिन के उर मैं विख-धार बहावति-सी । तम-पूरे अनेहिन के हिय-भीन में चॉदनी चारु उगावति-सी ।। रसिया 'हरिऔध' के अंतर मैं रस को सुभ सोत लसावति-सी । मुसुकावति आवति है ललना अखियान सुधा वरसावति-सी ॥८॥ दोहा- अहै वनावति रस बरसि मानस को मधु-मान । विकसित ललित कपोल करि अधर-बसी मुसुकान || ६ || (ख) हसित यदि नेत्रों और कोलों के विकास के साथ दाँत भी दिखलाई पये तब वह 'हसित' होता है । इसका आविर्भाव भी प्रायः गभीर और शिष्ट मुखमडल पर ही देखा जाता है। दोहा- दरसावति दमकत दसन लालहिं करति निहाल | हँसि वरसावति है सुधा बरसाने की वाल ॥१०॥ (ग) विहसित नेत्रों और कपोलों के विकास के साथ दाँत दिखलाते हुए जब आरंजित मुख से कुछ मधुर शब्द भी निकले तब 'विहसित होता है।