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पृष्ठ:रसकलस.djvu/२६६

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स्थायी भारा w 'हरिऔध' पात खरकत है कॅपत गात कब छिति माहि छाम रहत छयो नहीं। उभय नयन मॉहिँ भय अजहूँ है भरो समय हमारो मन, अभय भयो नहीं ।। ११ काको चार बॉह है बड़ो है वलवान कौन का न हमैं वीरता-विभूति को सहारो है। काहे फिर अरि अवलोकत बजत दाँत काहें भूत-अभिभूत होत भाव सारो है ।। 'हरिऔध' काहे रोम-रोम है भभर-भरो काहे भीति-पूरित विलोचन को तागे है। घरकत उर काहे खरकत पात ही के थर-थर काहें गात कॉपत हमारो है ||२|| - सवैया- हॉस-भरी गगरीन भरे हो चली हरये 'हरिऔधहि हेरी। चावरो वानर औचक अाइ गह्यो अचरा मग मैं अरि एरी ।। कॉपि उठी भभरी चली भाजि हौं टूटी गिरेगगरी सिर केरी । वीर अजौं बतिया न करे धरकी छतिया रतिया भर मेरी ॥ ३ ॥ दोहा- है न देस हित भय भरो है न भयावह यात । उभरि-उभरि कत चित्त तू भमरि-भभरि भजि जात ॥ ४ ॥ भव-जन-मानस भय-भरे क्यों न अभरि महराहिं । भूत-भावन-भजन भूत-भावना मॉहिं ॥५॥ 1