एसकलस २२ कवित्त- गगन के न्यारे-न्यारे तारन-कतार देखे करत कलोल देखे मीनन को जल मैं । रतन-अमोल अवलोके रतनाकर मैं जगमग जोति देखे जगत अनल मैं 11 'हरिऔध' काको चित चकित बनत नाहि लाल-लाल फूल देखे हरे-हरे दल मैं । घहरत कारे-कारे धन की घटा निहारि छहरत छाई छटा देखे छिति-तल मैं ॥१॥ विपुल-बिनोद सो कढ़े हैं दत दारिम के विहॅसि रही है चाँदनीहूँ निसिकंत की। कल-कठ कौसल सो करत मधुर-गान थिरक रही है कला मदन-महंत की । तेरी ही अनूठी छटा हेरि 'हरिऔध' प्यारे कलित कलीन को ठनी है विकसत की। भौर-भीर भॉव भरत उनमत्त द्वै के फूली श्राज मजु फुलबारी है, वसत की ।।२।। तरी हो कला ते कलानिधि है कला-निधान है नलि तेरी केलि कलित पतग मैं। गुरु-गिरिचान है तिहारी गुम्ता के लहे पावन प्रसग है तिहारो दूत सग मैं ।। 'हरिऔध' तेरी हरियाली ते हरे हैं तरु तू ही हरि बहर रह्यो है हर अंग मैं । तेग ग ही है रगनंग के प्रसूनन मैं तू हो है त गित तरंगिनीन्तरग मैं ॥शा
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