पृष्ठ:रसकलस.djvu/२७७

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रस-कलस मूठ कह्यो 'हरिऔध' सदा सब काज किये क्यों अजहूँ नहिं चेतत मूढ़ चिता पर जोर खोट कियो कितनो हित पेट के कूर , न पीर-सी होन लगी उर जो 'हरिऔध' कहूँ ताप भयो पर को हित देखत पाप मैं ना करनी करनीन कियो कबहूँ कान दोहा- मन तू कत भटकत फिरत कि तजि बहु-फलद मुकुंद-पद कामिनि सुत हित नात सो भजन देहिं वल-तात के ए ए. . मनस्ताप, अम, दुःख क्षोम श्रादि से अथवा असहनशीलता को 'ग्लानि कहते साह, घृणा, उपेक्षा यादि है। कवित- हहरत हियरो अधिक हहरन वाको मेरो बार-बार अहै होवे क्यो उन 'हरिऔध' पातकी है। कैसे पाप-पीन नौहे करि कहत रिसोही सौह होत नाहि