पृष्ठ:रसकलस.djvu/२८२

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३३ संचारी भाव होवै काम-कमनीय मोहक मयंक सम होवे मधु-सरिस मधुरता वितरतो । साहबी सुरेस-सी धनिकता धनेस की-सी धर्मराज जैसी धर्म-भाव होवै धरतो । 'हरिऔध' होय सुरगुरु-सम गौरवित महिमा त्रिदेव-सी मही में होवै भरतो । माननीय होवे पै अमाननीयता है इति मानव ह मानवी को मान है न करतो ॥२॥ सवेया-- मंजु मनोहरता कल-कीरति बेलि सदा अवनी मह बोतो। रूप-अनूपमता 'हरिऔध' निहारि कोऊ सुख-नींद न सोतो । सॉची कहाँ मधुराई लखे मम आननहूँ अपनी पत खोतो । मानती हौ हूँ तिहारी कही जो मयक में वीर कलंक न होतो ।। ३ ।। दोहा- होवें दल कोमल कलित सब फल भरे पियूख ! होय फवीले फूलहूँ तऊ रूख है रूख ॥ ४॥ अधिक कार्य करने अथवा मार्ग चलने आदि से उत्पन्न शैथिल्य ( थकान) का नाम 'श्रम' है । इसके लक्षण साँस फूलना, नींद भाना, पसीना निकलना और आलस्य आदि हैं। कवित्त- आँखि मॅदि परे हैं उठायेहूँ उठहि नाहिं छाले मरे पग छॉह छोरि-छोरि छके हैं। दूर है अवास, बास-थल है न बास जोग, थोरो रह्यो दिन पास रहे नाहिं टके हैं।