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पृष्ठ:रसकलस.djvu/२८६

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३७ संचारी भाव 'हरिऔध' पाकुल अनाकुल विपुल लैहै दुख-तूल-पुंज को अदुख-दावा दहिहै। प्रतिकूलता मै अनुकूलता निवास कहै काल पाके काल की करालता न रहिहै ॥२॥ सवैया- पास परोसिन आइ नितै परतीन की नाना-कथान को जोरै। वात चले सखियाँ सिगरी परदेस गये की दिखावत खोरै।। नेह रखै 'हरिऔध' नहीं अपनायतहूँ ते सदा मुख मोरै। लाला रहै पतिौ की तबौं पति को पतिनी परतीत न छोर ॥शा है दुख औ सुख दोऊ जहान मै कोऊ नहीं दुख-ही-दुख पैहै। बीति गये अधियारी निसा 'हरिऔध' दिवाकर होत उदै है। क्यो इतनो मन आतुर होत है श्रीसर पै सब ही बनि जैहै। पीतम को मुखचंद लखे फिर या दुखिया अखिया सुख पैहै ।।४।। दोहा- भये तिरोहित रजनि - तम रंजित गगन दिखात । पल-पल आकुल है विपुल तू अलि कत अकुलात ॥ ५॥ रहि है चोरत कब तलक धन तेरो चित - चोर । चौकि चौकि चितवत कहा चारो ओर चकोर ॥६॥ ८-आलस्य श्राति और जागरणादि-जनित निश्चेष्टता तथा सामर्थ्य होने पर भी उत्साह-- हीनता को 'श्रालस्य' कहते हैं। पडे रहना, जभाई लेना, एक जगह बैठे रहना आदि इसके लक्षण कवित्त-- आँखि अवलोकिहूँ सकत अवलोकि नाहि कान चाव साथ बात कान है न करतो । aston