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पृष्ठ:रसकलस.djvu/२८८

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३६ संचारो भाव कवित्त- पकि पकि रहिहैं पकरि के करेजो को लौं कलपि-कलपि को लौं बासर बिताइहैं। को लौं विधवा-पन-बधिक वेधि-वेधि है कौ लौ बेझो बनि-बनि विपुल विलखाइहै ।। 'हरिऔध' को लौं अनुकूल-काल पैहैं नाहि को लौं कालिमा के लगे पलक न लाइहैं। कौ लौं है बलि वलवान-रुचि-बेदिका पै भारत की बाला कौ लौ अबला कहाइहैं ॥१॥ करि करि कलह कलकित करत कुल मबल-करन लाभ कर चने लूले हैं। फल की हैं चाह पै सफलता मिलति नाहिं फुले-फूले फिरत अजौं न फले-फूले हैं ।। 'हरिऔध' सोचि-सोचि व्यथित बनत चित बिललात रहत विलात ज्यों बलूले हैं। लाले परे सुख के, कसाले सहे, भाले, सहे भोलेपन माहिं भोले-भाले हिदू भूले हैं ।।२।। सवैया- अनजानता जोहि के या जग की नित जीवन के दिन जोर लगी। अपमान औ मान की बात कहा है अपानहूँ ते मन मौरे लगी । 'हरिऔध' अमोही भये अखियान के ऑसुन हूँ को निहार लगी। तन की सुधि होति नहीं तन को अब तो वन के तृन तोरै लगी ।।३।। दोहा- है वाके हित तिमिरमय आज अवनि सव ओक । लोक समालोकित हुतो लहि जाको आलोक ॥४॥ -