पृष्ठ:रसकलस.djvu/२९२

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- संचारी भाव दोहा- देह गेह को नेह तजि चित-आकुलता रोकि । ललना है ललकति रहति लाल-बदन अवलोकि ।।३।। नयनन ते सूझत नहीं मुंह मैं रहे न दाँत । अपनो तन अपनो नहीं मनको मोह न जात ॥४॥ ११-स्वप्न निद्रा में निमग्न पुरुप के विषयानुभव करने का नाम 'स्वप्न' है । इसका व्यापार कोप, आवेग, भय, ग्लानि, सुख, दुःख से पूर्ण होता है। ऋवित्त- धोखे का महल कैसे मिल जाता धूर माहि मति की तुला पै कोरी वंचना क्यो तुलती। खोलते तो कैसे समाधान-नख-कमनीय पल-पल बहु कलकानि गॉठ घुलती। 'हरिऔध' कैसे चित्रकारी सपने की सब लहिकै विबोध-बारि-धर-धारा धुलती। भेद खुल गये सारो खेल कैसे खेल होतो जो न खुल जाति ऑखि ऑखि कैसे खुलती ॥ १ ॥ आये कंत गात कछु अंक अवलोकन कै मान मन ठानि उठि कंठ सों लगायो ना। सहमि सकानो खरो हेरत पिया को हेरि जिय के कठोर दया हिय मैं बसायो ना। प्रानप्यारो परम्या पगन 'हरिऔध' पै तऊ न पतियाई औ सुवोलहूँ सुनायो ना। सपनो समझि सब अपनो नसायो चन नैन के खुले पै पाली वैन कहि श्रायो ना ॥२॥