पृष्ठ:रसकलस.djvu/३१५

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रसकलस छिन छिन छीजत है जाति को छबीलो तन छूत-छात मैं परि अछूतो बल ख्वै गयो। लाल ललना के छिने छतिया छिलति नाहि पातक छबूंदर उछाहन को छै गयो। 'हरिऔध' काहें ऑखि खोलेहूँ खुलत नाहि गिरि-सम गौरव अगौरव मैं व गयो। मति छरि गई कै उछरि कै चुरैल लागी सरि गयो भेजो के करेजो रेजो है गयो ।। ३ ।। को है कहा दोहा- पामर जन पामरता पहचान । पद पद पर है पतित क्यों पैहै पद निर्वान ।। ४ ।। नहिं बोलत खोलत पलक तिय - तन डोलत है न । लागी अहै चुरैल के लगे नैन ते नैन ।। ५ ।।